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ग़ज़ल

1212 1122 1212 22

गरीब खाने तलक रोटियां नहीं जातीं ।

तेरे जहान से क्यूँ सिसकियाँ नहीं जातीं ।।

कतर रहे हैं वो पर ख्वाहिशों का अब भी बहुत।

नए गगन में अभी ,बेटियां नहीं जातीं ।।

वो तोड़ सकता है तारे भी आसमाँ से मग़र ।

मुसीबतो की ये परछाइयां नहीं जातीं ।।

यकीं करूँ मैं कहाँ तक जुबान पर साहब ।

लहू से आपके खुद्दारियाँ नहीं जातीं ।।

तमाम दे के रियायत हुजूर देख लिया ।

खराब कौम से गद्दारियाँ नहीं जातीं ।।

सियासतों का ये मंजर न पूछ अब हमसे ।

सियासतों से यहाँ खामियाँ नहीं जातीं ।।

नए निज़ाम से उम्मीद और क्या करना ।

चमन से आज भी दुश्वारियां नहीं जातीं ।।

नज़र का फेर था या फिर था हादसा कोई ।

दिलो दिमाग से रानाइयाँ नहीं जातीं ।।

न जाने क्या हुआ है आपकी निगाहों को ।

मेरे वजूद से रुस्वाइयाँ नहीं जातीं ।।

जरा सँभल के रहो दुश्मनों की फितरत से ।

मिले तो हाथ मगर खाइयां नहीं जातीं ।।

मैं भूल जाऊं सभी जख़्म कोशिशें हैं मेरी ।

मगर ज़िगर की ये मजबूरियां नहीं जातीं ।।

चले गए हैं मेरी जिंदगी से जब से वो ।

मेरे दयार से खामोशियाँ नहीं जातीं ।।

-- नवीन मणि त्रिपाठी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 1, 2018 at 6:30am

भाई नवीन मणि जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

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