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"एक क़तरा था समंदर हो गया हूँ"

2122 2122 2122

एक क़तरा था समंदर हो गया हूँ।
मैं समय के साथ बेहतर हो गया हूँ।।

कल तलक अपना समझते थे मुझे जो।
उनकी ख़ातिर आज नश्तर हो गया हूँ।।

मैं बयां करता नहीं हूँ दर्द अपना।
सब समझते हैं कि पत्थर हो गया हूँ।।

ज़िन्दगी में हादसे ऐसे हुए कुछ।
मैं जरा सा तल्ख़ तेवर हो गया हूँ।।

जख़्म दिल के तो नहीं अब तक भरे हैं।
हां मगर पहले से बेहतर हो गया हूँ।।


सुरेन्द्र इंसान

मौलिक व अप्रकाशित

Views: 1055

Comment

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Comment by Samar kabeer on December 2, 2017 at 9:49pm
जनाब सुरेन्द्र इंसान जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे शैर के सानी मिसरे में 'उनके'की जगह "उनकी"कर लें 'ख़ातिर' शब्द स्त्रीलिंग है ।
Comment by Manoj kumar shrivastava on December 2, 2017 at 9:29pm
अच्छी रचना, बधाइयाँ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 2, 2017 at 9:25pm
ज़िंदगी में हम जो अनुभव करते हैं, जो हम भोगते या महसूस करते हैं और लोगों के उन पर जो भिन्न नज़रिए या कटाक्ष/व्यंग्य होते हैं, इस रचना में बढ़िया अभिव्यक्त हुए हैं। सादर हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र इंसान जी।

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