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हुआ होगा कुछ आज ही के दिन

भयानक सनसनी अभी अचानक

थम गई

हवा आदतन अंधेरे आसमान में

कहाँ से कहाँ का लम्बा सफ़र तय कर

थक गई

पत्तों की पत्तों पर थपथपी

अब नहीं

रुकी हुई है पत्तों पर कोई अचेत अवस्था

या, असन्तुलनात्मक ख़ामोशी से उपजी

है आज भीतर अनायास उदास अनवस्था

बातों बातों में हम भी

तो रूठ जाते थे कभी

फिर भी हृदय सुनते थे स्वर

कुछ ही पल, आँखों से आँखों में देख

दुलारते

हँस देते थे हम दोनो

लौट आती थी तुम्हारी

स्नेहिल शिशु-नयनों की चमक

बुलाती थी तुम्हारे ओंठों की लाली

युग-युग का अनकहा मानो

कुछ साँसों में कह देती थी

पर अब पाता हूँ स्वयं को असहाय सहसा

तालाब में टूटते बुलबुलों-सा, अनियंत्रित

चार ही दिन की छोटी-सी

तुम्हारी बड़ी बीमारी ...

खुला का खुला रह गया वह कमरा

बर्फ़ीली साँस थी जमी गली-गली

तुम...चली गई

मैं तुम्हें छू न सका

देख-देख खड़ा डरता रहा, फिर चीखा

यह मेरी "इतनी अपनी" को 

"आज" क्या हुआ...यह सच था क्या ?

वह "आज" जिसका फैलाव अब

हर सवाल में, हृदय की थाह में

सिर पर, तन पर

मेरी हर सचाई पर फैला

रुधिर-सी फूट रही यादों के

अधभूले एहसासों के भीतरी अहातों में

कन्धे पर ठहरा, भारी पत्थर के भार-सा

वह "आज" लौट आता नहीं, ठहरा-सा रहता

मन-विवर में अधसूखी पपड़ी के नीचे

गड़ा हुआ

गहरा है घाव

रातों में अंधेरे आकाश में दरारें हो मानो

अकस्मात, सपाट सूने में धुंधला-सा आकार

तुम्हारी बेचैन आँखें

संकेत-भाषा ... मुझको पुकारती

पुचकारती, दुलारती, समझाती

मेरी गलतियों का एहसास भी कराती

बिना किसी शिकायत

कुछ वैसे ही, वही की वही ...तुम

छू लेता हूँ तुम्हारा हाथ, डरा-डरा

सोचता हूँ, तुम्हें रोकूँ

कि न रोकूँ ...

यादें

ठहरी यादों से

कल फिर मिलने का वायदा करती 

भीगे सिरहाने पर

       -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on December 14, 2017 at 3:43pm

//जज़्बात की ज़मीन पर शब्दों की बहुत सुंदर और शानदार इमारत तैयार करना आपका कमाल है//

आपसे मिले इस स्नेह के लिए हृदयतल से आभार, आदरणीय भाई समर जी।

Comment by vijay nikore on December 14, 2017 at 3:41pm

//शानदार भाव और मर्मस्पर्शी संवेदनाओं से परिपुर्ण रचना//

सरहाना के लिए आपका आभारी हूँ, आदरणीय मोहित जी।

Comment by vijay nikore on December 14, 2017 at 3:40pm

//इस बेमिसाल प्रस्तुति पर आपको दिल से हार्दिक बधाई//

सरहाना के लिए आपका आभारी हूँ, आदरणीय सुशील जी।

Comment by vijay nikore on December 14, 2017 at 3:39pm

//अनिवर्चनीय//

आपका यह एक शब्द मेरे लिए अमूल्य है, मेरे भाई गोपाल नारयन जी।

Comment by vijay nikore on December 14, 2017 at 3:38pm

//भूली बिसरी यादों को दर्शाती सुन्दर रचना//

तस्दीक़ अहमद साहब, आपका हार्दिक आभार। आशा है आपका स्नेह मिलता रहेग।

Comment by vijay nikore on December 14, 2017 at 3:35pm

//बहुत ही बेहतरीन अहसासों की ख़ुशबू से महकी हुई प्यार कुछ-कुछ बिछोह की अवस्था//

इस मान औए स्नेह के लिए आभारी हूँ, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।

Comment by Samar kabeer on November 24, 2017 at 10:57am
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,जज़्बात की ज़मीन पर शब्दों की बहुत सुंदर और शानदार इमारत तैयार करना आपका कमाल है,हमेशा की तरह ये कविता भी मन को छूती हुई गुज़री,इस बहतरीन प्रस्तुति पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on November 23, 2017 at 8:02pm

यादें
ठहरी यादों से
कल फिर मिलने का वायदा करती
भीगे सिरहाने पर

अप्रतिम अप्रतिम अप्रतिम ...
यादों के शानों पर
जाने क्या क्या
रख दिया आपने
नाउम्मीदी के सायों को
अपनी आफ़ताबी कलम से
ढक दिया आपने

इस बेमिसाल प्रस्तुति पर आपको दिल से हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोर साहिब।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 23, 2017 at 7:42pm

आआ० निकोरे जी , बस इतना ही कहूंगा - अनिवर्चनीय .    सादर

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on November 23, 2017 at 5:31pm
मुहतरम जनाब विजय साहिब ,भूली बिसरी यादों को दर्शाती सुन्दर रचना हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

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