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कहीं दीप जले, कहीं दिल (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"चलो दिल बहलाने के लिए अब शतरंज खेलते हैं!"
"ठीक है, लेकिन जीतोगी तो तुम ही!"
"ऐसा मत कहो, दिल बहुत भारी है, कोई भी जीते!"
"सच कहती हो, जीत और हार तो अब इस ताजमहल के इतिहास और हक़ीक़त की होनी है, मुमताज़!"
"आज मुझे अर्जुमंद ही कहो, मुमताज़ नहीं, मेरे ख़ुर्रम! ये इक्कीसवीं सदी का हिन्दुस्तान है, डार्लिंग! कुछ देर आज के लवर्स की तरह बातचीत कर लो न! कल यहां क्या हो, किसने जाना!"
"सही कहा तुमने! सुना है यहां का इतिहास बदलने की धमकियां दी जा रही हैं! तुम्हारा ये ताजमहल अब 'तेजो महल' साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं! कहीं हमारे नाम भी बदल न दिये जायें!"
"ओह नो! हाउ इज़ इट पॉसीबल, डियर! हाउ डेअरिंग! ये लोग तो ये भी साबित कर देंगे कि यहां हमारी क़ब्रें नहीं, किसी हिन्दू राजा-रानी की समाधियां हैं!"

ताजमहल पर विवाद सुनकर और अयोध्या में छोटी दीवाली पर दीप जलाने के विश्व रिकॉर्ड बनाये जाने पर आज बादशाह शाहजहां और मुमताज महल की रूहें अपने ताजमहल को निहारते हुए शतरंज की बिसात पर बैठे हुए बतौर नये ज़माने के प्रेमी-प्रेमिका बातचीत कर अपने ग़म साझा कर दिल हल्के करने की कोशिशें कर रहे थे। बीच में खेल रोकते हुए मुमताज़ ने ताजमहल को देखकर कहा- "ख़ुर्रम! अयोध्या में लाखों दीयों की रोशनी की गई, क्या यहां की मस्जिद में लाखों लोग नमाज़ अदा कर वर्ल्ड रिकॉर्ड बना सकेंगे?"
"दैट्स नॉट पॉसीबल अर्जुमंद! डोन्ट यू नो, इस मुल्क की हज़ारों मस्जिदों तक में नमाज़ियों की तादाद घट रही है!"
"ये मॉडर्न हिन्दुस्तान है, फ़िर भी मन्दिर-मस्जिदों में करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं, मज़हब के नाम पर लोग आपस में लड़ रहे हैं!" मुमताज़ ने शाहजहां की गोद में सिर रखते हुए कहा-"ख़ुर्रम! तुम्हारे दादाजान के 'दीन-ए-इलाही' का क्या हुआ? हिन्दुस्तानियों ने उससे कोई सबक़ नहीं सीखा?"
"ये इतिहास से सीख नहीं रहे, इतिहास बदल रहे हैं, मुझे तो इस ताजमहल की फ़िक्र हो रही है!"
"परेशान मत हो! कोई तुम्हारे किये पर पानी नहीं फेरेगा। दुनिया भर में इसके करोड़ों दीवाने थे और रहेंगे। सुना तो ये भी है कि हमारे ताजमहल के लिए भी करोड़ों रुपयों के प्रोजेक्ट तय हुए हैं, इज़ इट ट्रू, डार्लिंग!"
"हो सकता है, लेकिन यह भी तो सुना है कि यहां भ्रष्टाचार बहुत है, कितना पैसा कहां जाता है, यहां के लोग जान गये हैं; उनके ज़रूरी मसले कहां हल हो रहे हैं?"
"हां, नेता शो-मैन हो गये हैं और विरासतें शो-पीस!" मुमताज़ की तेज़ हंसी के साथ शाहजहां का ठहाका परिसर में गूंज उठा और दोनों की रूहें अपने-अपने मुकामों पर पहुंच गईं।

(मौलिक व अप्रकाशित)

[19 अक्टूबर, 2017; दीपोत्सव]

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Comment by Samar kabeer on October 19, 2017 at 5:04pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Ajay Tiwari on October 19, 2017 at 8:36am

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब,

कथा के तकनीकी पहलू पर तो कुछ नहीं कह सकता लेकिन जो मुद्दे आप ने उठाये हैं वो ज्वलंत हैं.

आतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ने के बजाय भविष्य की तरफ देखना ही हमारे देश के लिए शुभ है.

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें.

सादर 

Comment by Mohammed Arif on October 19, 2017 at 8:14am
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब, बहुत ही करारे कटाक्ष से परिपूर्ण , इतिहाब के प्रसंग को वर्तमान संदर्भ में देखने का बेहतरीन और सफल प्रयास , संवादों में ताज़गी इसलिए बढ़ गई क्योंकि अंग्रेज़ी के संवाद हैं जो समय की माँग के अनुकूल है । इतिहास से सबक़ लेने की आवश्यकता है न कि इतिहास बदलने की । इस प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।

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