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वक़्त के संग कुछ बदल // डॉ० प्राची

तारतम्यों के भँवर में
क्या उम्मीदें कर रहा है?
बावरे अब तो सम्हल जा
वक्त के संग कुछ बदल...

क्यों ठगा सा तू खड़ा है भावनाओं को लिये
बाँचता है क्यों भला वो अश्रु जो तूने पिये,
रख अगर उम्मीद रखनी है स्वयं से खूब रख
तृप्ति की जो बूँद निस्सृत हो हृदय से खूब चख,

आज के परिपेक्ष्य में अपनत्व
की संभावना को,
खोजना क्या है उचित?
रे मूर्ख! जाएगा फिसल...

सिर्फ बातों के लिए सबने सभी बातें कहीं
अर्थ उनमे खोजता क्यों अब तलक अटका वहीं,
सिर्फ सुविधा के तहत जब आपसी व्यवहार हों
तब क्षणिक अनुबंध भी आख़िर किसे स्वीकार हों,

तितलियों के आवरण में
डंक बर्रों के छुपाती,
फितरतें हैं आदमी की
तू नहीं इन पर मचल...

जब विलगता बाँह थामे इस तरह संयुक्त हो
इक सिरा आबद्ध पर दूजा सिरा उन्मुक्त हो,
क्या नहीं होगा सही तब बन्धनों को खोलना
मिसरियों सा झूठ झुठला सत्य खुद से बोलना,

सिसकियों के सिलसिले सब
भूल कर, फिर माफियों के,
गर्म से एहसास में तू
किन्तु मत जाना पिघल...

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 19, 2017 at 9:27pm
आदरणीया प्राची जी इस खूबसूरत गीत के लिए हार्दिक बधाई। दिवाली की भी हार्दिक शुभकामनाये सादर
Comment by SALIM RAZA REWA on October 19, 2017 at 9:44am
आ. ख़ूबसूरत रचना के लिए बधाई.
Comment by Ajay Tiwari on October 19, 2017 at 8:50am

आदरणीया प्राची जी,

खूबसूरत गीत प्रस्तुति के लिए बधाईयाँ.

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं.

सादर  

Comment by Samar kabeer on October 18, 2017 at 5:24pm
जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब आदाब,हा हा हा..बूझ लिया जी, परन्तु उर्दू शब्दवा का समावेश भी है ई गीतवा म,तनिक ई भी समझाई दो ई का मिली जुली सरकार है का ?

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Comment by Dr.Prachi Singh on October 18, 2017 at 5:14pm

सँभल.. ही कर लेती हूँ 

कुछ शब्द सामान्य वार्तालाप से अनजाने ही शैली में इस कदर शुमार हो चुके होते हैं कि उनके बारे में सोच ही नही सकते कि इनकी वर्तनी गलत भी हो सकती है 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 18, 2017 at 4:08pm

आ० प्राची जी, इस गीति-प्रतीति पर पुनः आता हूँ. किंतु इस अद्भुत संप्रेषणीयता के लिए आप पहले हार्दिक बधाई स्वीकारें 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 18, 2017 at 4:03pm

आदरणीय समर साहब ई गीतवा त हिंदी में न है, आप तनिका ई भी बुझिये !

हिन्दी में ’मुआफ़ियों’ कहि दें आ फेर देखें तमाशा ! लुल्ले पर हुल्ले मच जाएगा..  आ ’सम्हल’ पूरा देसज का चाशनी में लभेराया लफ्ज है.. आ ऊ एकदम्मे लफ़्ज़ नहीं होता.. :-)))))) 

जय हो.. .  हा हा हा............ 

आदरणीय, हँसी-खुशी में हम समवेत सीखते चलें..

Comment by Samar kabeer on October 18, 2017 at 2:49pm
मोहतरमा डॉ.प्राची सिंह साहिबा आदाब,बहुत सुंदर गीत हुआ है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
तीसरी पंक्ति में 'सम्हल' या "सँभल",
इसी तरह आख़री पंक्तियों में 'माफियों' या "मुआफ़ियों"?

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