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अजनबी इस भीड़ में ढूँढे किसे मेरी नजर (ग़ज़ल 'राज')

2122  2122  2122  212

 

जिंदगी की जुस्तज़ू में आ गई जाने किधर 
अजनबी इस भीड़ में ढूँढे किसे मेरी नजर 

बे-नियाज़ी की यहाँ दीवार कैसे आ गई 
'हम नफ़स अह्ल-ए-महब्बत कुछ इधर हैं कुछ उधर 

साथ साया भी रहेगा जब तलक है रोशनी 
कौन किसका साथ देता बेवजह यूँ उम्रभर 

लौट कर आती नहीं ये खूब जीले जिंदगी 
इक सितारा कह गया यूँ आसमां से टूटकर 

खींच लाई झोंपड़ी को जब महल की रोटियाँ 
एक दिन आकर अना ने ये कहा जा डूब मर 

कोई सीढ़ी भी नहीं है और खाली जेब है 
डिग्रियाँ हाथों में लेकर फिर रहा वो दरबदर 

दूर कितनी मेरी मंजिल कब मिलेगी क्या पता 
जीस्त की जद्दोजहद में खो गई है रहगुज़र

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 5, 2017 at 1:05pm

आद० निलेश भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 5, 2017 at 12:13pm

आ. राजेश दीदी,
बहुत अच्छी ग़ैर-मुरद्दफ़ल  ग़ज़ल पेश की आपने.
बहुत बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 5, 2017 at 11:45am

आद० समर भाई जी, आपकी प्रतिक्रिया से मेरी ग़ज़ल मुकम्मल हुई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया .आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया | सादर 

Comment by Samar kabeer on October 5, 2017 at 11:39am
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

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