१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
मापनी 1222 1222 1222 1222
इधर जाता तो अच्छा था, उधर जाता तो अच्छा था.
रहा भ्रम में, कहीं पर यदि, ठहर जाता तो अच्छा था.
उभर आता तो अच्छा था, हृदय का घाव चेहरे पर,
हमारा दर्द भी हद से, गुजर जाता तो अच्छा था.
उधर घुसकर गए भी थे, सिखाया था सबक भी कुछ,
वहाँ पर यदि तिरंगा भी फहर जाता तो अच्छा था
किनारे पर रहा अठखेलियाँ करता, न पाया कुछ,
अगर गहरे समंदर में उतर जाता तो अच्छा था
उन्होंने ख्वाब दिखलाये, सभी को आसमानों के.
जमीं पर एक घर भी अब, सँवर जाता तो अच्छा था
हमारे गाँव की मिटटी, रही बुनियाद शहरों की,
कँगूरों तक भी थोड़ा सा, असर जाता तो अच्छा था
पहाड़ों से बहा तो जल, गया देखो समंदर में,
जहाँ उसकी जरूरत थी, ठहर जाता तो अच्छा था
“मौलिक एवं अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी अतिशय आभार आपका, सुझाव अनुकरणीय , पालन कर दिया है , इसी तरह मर्दार्ष्ण की अपेक्षा, सादर नमन आपको
बहुत खूब , आदरणीय बसंत भाई अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइइयाँ ।
जमीं पर एक घर भी यदि -- मिसरा सही है , फिर भी चाहें तो ऐसा कह के देख सकते हैं . यदि पढ़्ने मे अटक रहा है
जमी पर एक घर भी अब सँवर जाता तो अच्छा था -- सोच लीजियेगा ।
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