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घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करके

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करके 

चिरागों को बुझाया है किसी ने दोस्ती करके 

सुकूं था जिसके जीवन में जिसे आती थी मीठी नींद 

उसे शब् भर जगाया है किसी ने दोस्ती करके 

जो दुश्मन था जमाने से जो प्यासा था लहू का ही 

उसी को अब बचाया है किसी ने दोस्ती करके 

अँधेरे में मेरा साया हुआ कुछ इस तरह से गुम

ज्यूँ रिश्ता हर भुलाया है किसी ने दोस्ती करके 

फकीरों की तरह जीता, था खुश तन्हाई से अपनी 

मगर तिल तिल मिटाया है किसी ने दोस्ती करके 

तेरे पहलू में आया हूँ लगा साकी गले मुझको 

बड़ा ही जुल्म ढाया है किसी ने दोस्ती करके 

जमीं के एक टुकड़े को खड़ी सेनायें सरहद पर 

लहू हरदम बहाया है किसी ने दोस्ती करके 

थी हर उम्मीद जब टूटी न दुनिया रास आई थी 

तभी आशू हंसाया है किसी ने दोस्ती करके 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 12, 2017 at 3:09pm
आदरणीय गुरुप्रीत सिंह जी आदरणीय तेजवीर सिंह जी रचना को आपका स्नेह मिला मैं ह्रदय से आभारी हूँ सादर
Comment by TEJ VEER SINGH on September 11, 2017 at 5:41pm

हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ आशुतोष जी।बेहतरीन गज़ल।

Comment by Gurpreet Singh jammu on September 11, 2017 at 12:56pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी,,
तेरे पहलू में आया हूँ लगा साकी गले मुझको
बड़ा ही जुल्म ढाया है किसी ने दोस्ती करके
यह शेयर बहुत अच्छा लगा

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 10, 2017 at 9:52pm
आदरणीय समर सर रचना पर आपकी प्रतिक्रिया से बड़ा हौसला मिलता है आदरणीय सर दुसरे शेर में उला मिसरे पर फिर ध्यान दूंगा सादर प्रणाम के साठ
Comment by Samar kabeer on September 10, 2017 at 9:11pm
जनाब डॉ.आशुतोष मिश्रा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे शैर के ऊला मिसरे की बह्र एक बार जाँच लें ।

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