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ग़ज़ल --ख़ुदा की रहमतें उनको बहुत लाचार करतीं हैं

1222 1222 1222 1222

वो अक्सर बेरुखी से वक्त का दीदार करती हैं ।।
हवाएं इस तरह से जिंदगी दुस्वार करती हैं ।।

न जाने क्या मुहब्बत है हमारी हर तरक्की से ।
हज़ारों मुश्किलें हम से ही आंखें चार करती हैं ।।

बड़ी चर्चा है वो बदनामियों से अब नहीं डरता ।
है उसकी हरकतें ऐसी दिलों में ख्वार करतीं हैं ।।

जिन्हें खुद पर भरोसा ही नही रहता है मस्जिद में ।
खुदा की रहमतें उनको बहुत लाचार करती हैं ।।

न् जाओ तुम कभी मतलब परस्तों के इलाके में ।
उधर खुशियां भी मुद्दत से नहीं रुखसार करती हैं ।।

वफ़ा चाहो वफ़ा पढ़ लो जफ़ा चाहो जफ़ा पढ़ लो ।
तुम्हारी चाहतें मुझको खुला अखबार करती हैं ।।

सँभल के चल मेरे साथी ज़माना है बड़ा जालिम ।
सुना है वारदातें वो सरे बाज़ार करतीं हैं ।

उन्हें कैसी अदावत है समझना भी हुआ मुश्किल ।
दुआएं पास आने से बहुत इनकार करतीं हैं ।।

न पूछो हाल अब उसका बहुत चर्चा है जोरों पर ।
अदाएं गैर की महफ़िल गुले गुलज़ार करती हैं ।।

नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Naveen Mani Tripathi on June 3, 2017 at 8:32pm
आ0 मुहम्मद आरिफ़ साहब तहे दिल से शुक्रिया ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on June 3, 2017 at 8:31pm
आ0 बसंत कुमार शर्मा जी हार्दिक आभार ।
Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 3, 2017 at 6:15pm

सुंदर ग़ज़ल कही है आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी ,

न जाने क्या मुहब्बत है हमारी हर तरक्की से ।
हज़ारों मुश्किलें हम से ही आंखें चार करती हैं ।। बहुत बढ़िया 

Comment by Mohammed Arif on June 3, 2017 at 5:07pm
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र लाजवाब । हार्दिक बधाई क़ुबूल करें ।
Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 3, 2017 at 4:52pm

सुंदर ग़ज़ल कही है आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी ,

न जाने क्या मुहब्बत है हमारी हर तरक्की से ।
हज़ारों मुश्किलें हम से ही आंखें चार करती हैं ।। बहुत बढ़िया 

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