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उल्फत न सही बैर निभाने के लिए आ.(समीक्षार्थ ग़ज़ल) :अलका ललित

221 1221 1221 122

***
उल्फत न सही बैर निभाने के लिए आ
चाहत के अधूरे से फ़साने के लिए आ

.

चाहत भरी दस्तक भी सुनी थी कभी दिल ने
वीरानियों को फिर से बसाने के लिए आ

.

शब्दों की कमी तो मुझे हरदम ही रही है
खामोश ग़ज़ल कोई सुनाने के लिए आ

.

सागर ये गमों का कहीं तट तोड़ न जाए
ऐ राहते जां बांध बनाने के लिए आ

.

रौशन दरो दीवार है झिलमिल है सितारे 
ऐ चाँद मेरे मुझको डुबाने के लिए आ

.

तहज़ीब की बातें करें जो है मेरे कातिल
जालिम मेरे अश्को को सजाने के लिए आ

.

लहरें हुई चंचल ज़रा डगमग है सफीना 
पतवार लिए पार लगाने के लिए आ

.

हरदम हो बहारें नही ये मेरी तमन्ना
पतझर में भी तू फूल खिलाने के लिए आ

.

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by अलका 'कृष्णांशी' on August 8, 2017 at 5:31pm

आदरनीय   गिरिराज भंडारी   जी   , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये  आभार आपका।  सादर

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on August 8, 2017 at 5:30pm

आदरनीय   Nilesh Shevgaonkar  जी   , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये  आभार आपका।  सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 9, 2017 at 9:22pm

आदरनीया अलका जी , अच्छी गज़ल कहे है , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2017 at 9:53am

आ. अलका जी,

ग़ज़ल के लिये बधाई ....
तरही अथवा तज़मीन ग़ज़ल जब भी कहें तो कोशिश करें कि मूल ग़ज़ल के मिसरों के अंश न आने पाये... अथवा तरक़ीब अलग हो 
ग़ज़ल के  लिये पुन: बधाई 
सादर 

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on May 8, 2017 at 10:32pm

आदरनीय   बृजेश कुमार 'ब्रज'  जी   , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये  आभार आपका।  सादर

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on May 8, 2017 at 10:31pm

आदरनीय   Samar kabeer  ji , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये धन्यवाद । मार्गदर्शन के लिए आभार आपका।  सादर 

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on May 8, 2017 at 10:28pm

आदरनीय  Sushil Sarna ji  , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आभार आपका। सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 8, 2017 at 8:14pm
वाह बहुत ही खूबसूरत सरस ग़ज़ल..बधाइयाँ
Comment by Samar kabeer on May 8, 2017 at 6:35pm
मोहतरमा अलका ललित जी आदाब,अहमद'फ़राज़'साहिब की ज़मीन में ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
5वें शैर के ऊला में 'दिवार'को "दीवार" कर लें ।
Comment by Sushil Sarna on May 8, 2017 at 4:27pm

उल्फत न सही बैर निभाने के लिए आ

चाहत के अधूरे से फ़साने के लिए आ
.
चाहत भरी दस्तक भी सुनी थी कभी दिल ने

वीरानियों को फिर से बसाने के लिए आ

वह आदरणीय अलका ललित जी वाह बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे है आपने। इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

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