२१२२/१२१२/२२
हमने अपने ही पाँव काटे हैं,
इस सड़क पर के छाँव काटे हैं।
जो परींदा मजे से रहता था,
उनके तो सारे ठाँव काटे हैं।
दौड़ना चाहती है हर बेवा,
पर ये दुनिया ने पाँव काटे हैं।
वार जिसने भी करना चाहा तो,
उसके तो सारे दाँव काटे हैं।
जानकर जा रहे शहर(१२) तुम भी,
इस शहर(१२)ने ही गाँव काटे हैं।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
मतले में छाँव काटी है आयेगा ..
सादर
आदरणीय हेमंत भाई , गज़ल पर अच्छा प्रयास हुआ है ... हार्दिक बधाई । गुणिजनों की सलाहों का ध्यान रखियेगा ...
धीरे धीरे रे मना धीरे ही सब होय ... लगे रहियेगा ।
आदरणीय हेमंत कुमार जी बहुत ही सुंदर भावों की ग़ज़ल के लिए बधाई। आदरणीय रवि शुक्ला जी और समर कबीर साहिब की ग़ज़ल पर समीक्षा ज्ञानवर्धक है। आ.शुक्ला जी और समर साहिब का मैं दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ कि वो हर रचनाकार का हौसला ज्ञान के साथ बढ़ाते हैं। हार्दिक आभार।
जैसा कि आद० रवि भैया ने कहा है मतला स्पष्ट नहीं है
परिंदा वाले शेर में ---जो परिंदे मजे से रहते थे --कर सकते हैं
छोटी बह्र पर अच्छा प्रयास किया है बहुत बहुत बधाई
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