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सजी दुल्हन के जोड़े में, हंसी वो रूप की रानी।
सुनहरे रंग की बिंदिया, चमक माथे पे नूरानी।
हरी चूनर खिला चहरा, गुलाबी होंठ की लाली।
हजारों हुश्न देखे पर, नहीं उसका कोई सानी।

तुम्हारी सादगी देखी, तुम्हारा साज देखा है।
मगर हर रूप में जाना, जुदा अंदाज देखा है।
तुम्हारी सादगी चमके, कुमुदिनी फूल के जैसे।
तुम्हारे साज में हमने, सदा ऋतुराज देखा है।

खुली आंखें रहीं मेरी, अचानक देखकर उनको।
धरा पर ईश ने भेजा, रमा रति उर्वशी किसको।
अगर नख शिख करूं वर्णन, तो केवल लफ्जबाजी है।
हमारी मति हुई जड़ सी, निहारूं एकटक उनको।

तुम्हारी इक झलक पाकर, हमें इतनी खुशी होती।
किसी प्यासे को ज्यों पानी, किसी भूखे को ज्यों रोटी।
कई दिन से नहीं देखा, लगे कुछ गुम गया मेरा।
दिखे जब आज वो मुझको, मिला अनमोल सा मोती।

परायी वो अमानत है, मेरा अधिकार ना उस पर।
सड़क का एक पत्थर हूं, नहीं उसका कोई रहबर।
कदम से लग कहा मैंने, चले क्या साथ हम दोनों।
बनो मत बावले प्यारे, कहा उसने मुझे हंसकर।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 4, 2017 at 12:18pm
आदरणी मो. आरिफ सर, सादर आभार। मात्रा विन्यास न लिखने के लिये क्षमा प्रार्थी हूं। मात्रा विन्यास है- 1222 1222 1222 1222
Comment by नाथ सोनांचली on April 4, 2017 at 4:49am
जनाब विन्ध्येश्वरी जी आदाब,बहुत अच्छे मुक्तक लिखे आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Samar kabeer on April 3, 2017 at 2:42pm
जनाब विन्धियेश्वरी जी आदाब,बहुत अच्छे मुक्तक लिखे आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
पहले मुक्तक में 'रानी'और 'नूरानी'की तुकान्तता सही है क्या ?
दूसरे मुक्तक में 'साज़','अंदाज़'के साथ 'ऋतुराज'की तुकान्तता पर भी विचार कीजियेगा ।
तीसरे मुक्तक में 'उनको'के साथ 'किसको'और फिर 'उनको'की तुकान्तता पर भी विचार कीजियेगा ।
Comment by Mohammed Arif on April 3, 2017 at 11:12am
आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी आदाब, बेहतरीन प्रेम के रंग में सराबोर मुक्तक,नये बिम्ब और प्रतीक से ताज़गी का अहसास । यदि आपने इन मुक्तकों की बह्र (मात्रिक विधान)भी लिख दी होती तो बहुत अच्छा होता । बहुत-बहुत बधाई ।

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