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गजल(गीत कौवे गा रहे हैं आजकल)

2122 2122 212

*****************
गीत कौवे गा रहे हैं आजकल
कंठ कोयल के भरे हैं आजकल।1

दुश्मनी सारी भुलाकर मसखरे
फिर गले से मिल रहे हैं आजकल।2

गालियाँ देते परस्पर जो रहे
प्रीत के सागर बने हैं आजकल।3

आज दुबके हैं सभी गिरगिट यहाँ
रंग बदलू आ गये हैं आजकल।4

कुर्सियों का ताव इतना बढ़ गया
धुर विरोधी भा गये हैं आजकल।5

लोग ठगते रह गये खुद को यहाँ
और ठगने जा रहे हैं आजकल।6

सींचते हैं जड़ नहीं,बस फुनगियाँ,
कारनामे कब खले हैं आजकल?7

रातभर रोता रहा दीया यहाँ
भोर के चर्चे चले हैं आजकल।8

फिर कुहासा रोशनी को घेरता
बेखबर-से दिन ढ़ले हैं आजकल।9

मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment

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Comment by Manan Kumar singh on February 9, 2017 at 9:31pm
आपका आभार आदरणीय जयनीत जी।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 9, 2017 at 9:26pm
आदरणीय मनन जी, आपकी रचना अच्छी है, तथा यत्र-तत्र की अपेक्षा है, जिसपर विद्वजन कह चुके हैं। सादर।
Comment by Manan Kumar singh on February 8, 2017 at 11:30pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय समर  साहब, यथा योग्य गौर करता हूँ। आपके इस्लाह की आकांक्षा सर्वदा ही रहती है। 

Comment by Samar kabeer on February 8, 2017 at 10:34pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

दूसरे शैर के सानी मिसरे में जनाब मिथिलेश जी का सुझाव अच्छा है ।

गालियाँ पहले कभी देते रहे
प्रीत के सागर बने हैं आजकल।3

इस शैर के बारे में दिनेश जी सही फ़रमा रहे हैं ,आप चाहें तो ऊला मिसरा इस तरह कर सकते हैं :-

"गालियाँ देते रहे जो उम्र भर"

"माँद में दुबके हुए गिरगिट यहाँ
रंग बदलू आ गये हैं आजकल।"

इस शैर के बारे में आपको बताना चाहूँगा कि गिरगिट 'माँद' में नहीं रहते ,शैर 'माँद' में रहते हैं ।

"लोग ठगते रह गये खुद से यहाँ
और ठगने जा रहे हैं आजकल"

इस शैर में मफ़हूम साफ़ नहीं है ।देखियेगा ।

बाक़ी शुभ-शुभ ।
Comment by Manan Kumar singh on February 8, 2017 at 10:14pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय दिनेश  जी। देखता हूँ, 

Comment by Manan Kumar singh on February 8, 2017 at 10:12pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय बृजेश जी। 

Comment by Manan Kumar singh on February 8, 2017 at 10:12pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय आरिफ भाई । 

Comment by Manan Kumar singh on February 8, 2017 at 10:11pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी। 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 8, 2017 at 9:52pm
गीत कौवे गा रहे हैं आजकल
कंठ कोयल के भरे हैं आजकल..बेहतरीन सादर..
Comment by दिनेश कुमार on February 8, 2017 at 7:38pm
उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय मनन साहब। वाह वाह।
तीसरे शेर में कर्ता गायब है। शायद।

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