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गजल(तीर चले चुन चुन के कस कस)

22222222
तीर चले चुन-चुन के कस-कस
मन तो भूला जाता सरबस।1

बूढ़ा बरगद बौराया है
अँगिया- गमछा करते सरकस।2

छौंरा- छौंरी छुछुआये हैं
पुरवा घर-घर करती बतरस।3

बढ़नी लेकर काकी दौड़ी
सच तो सहना पड़ता बरबस।4

फागुन की फुनगी अँखुआयी
चौरा-चौरा होता चौकस।5

आतुर होकर आज हवाएँ
ढूँढ़ रहीं निज मरकज,बेकस।6

मन का मीत कहीं मिल जाये
मनुआ दौड़ चला जस का तस।7

रंग चढ़ा जिसको,वह उछले
बाकी कहते,रहने दो बस।8

कुछ तो घाव 'मनन' भरने दो
मौसम हो जाने दो समरस।9
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by Samar kabeer on February 5, 2017 at 2:38pm
अब क़ाफ़िया दोष नहीं रहा । लेकिन आख़री शैर में 'कसमकस'सही नहीं,सही शब्द है "कशमकश"इसलिये इसमें भी क़ाफ़िया दोष आ गया ।
Comment by Manan Kumar singh on February 5, 2017 at 11:37am
आदरणीय समर जी,आदाब! आपने बहुत सही सुझाया।रफ रूप में ही गजल पोस्ट हो गयी थी।अब जरा गौर कर अपना बेशकीमती मंतव्य देने की कृपा करें,सादर।
Comment by Samar kabeer on February 4, 2017 at 7:15pm
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, बधाई स्वीकार करें ।
4थे,पांचवें,6ठे, और सातवें शैर में क़ाफ़िया दोष है,देखियेगा,सातवें शैर में सही शब्द है 'तरकश" ।

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