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ग़ज़ल- दर्द जो नातवां से उठता है

दर्द जो नातवां से उठता है
शोर वो आस्तां से उठता है


गीत भी देख लो छुपे भीतर
दर्द दिल में जहां से उठता है


नाम की भूख ने बदल डाला
क्यूँ धुंआ अब यहाँ से उठता है


प्यार बांटो सदा जमाने में
बोल सच्चा फुगां से उठता है


उम्र बीती समझ नहीं आया
रोज झगड़ा बयां से उठता है


जिंदगी आज बन्दगी 'तन्हा'

नाम उसका ही जां से उठता है....

.
मुनीश 'तन्हा'.
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Mohammed Arif on January 27, 2017 at 8:24pm
आदरणीय मुनीशजी, अच्छी ग़ज़ल हुई बधाई कुबूल करें । जनाब समर साहब की बात पर ग़ौर करें तो बेहतर होगा । मैं उनकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ ।
Comment by Samar kabeer on January 26, 2017 at 10:47am
जहाँ जहाँ ज़रूरत थी मैंने ठीक करने का प्रयास किया है,एक बार फिर देखिये मेरी टिप्पणी ।
Comment by munish tanha on January 25, 2017 at 11:21pm

आदरणीय समर साहिब जी आप अपने विषय में परांगत हैं अब ग़ज़ल आपकी क्लास में आई है अब इसका रूप आपको निखारना है आपकी कसौटियां इम्तेहान होती हैं शब्दों के सही संयोजक (चुनाव ) से ग़ज़ल का रूप निखर कर आता है निवेदन है की इसका ऑपरेशन करें और ग़ज़ल को नवयोवना बना कर पेश करें आपसे यही अपेक्षा है आपका अपना मुनीश तन्हा 

Comment by Samar kabeer on January 25, 2017 at 10:22pm
जनाब मुनीश तन्हा साहिब आदाब,आपकी रचनाएं ओबीओ के मंच पर बहुत कम दिखाई देती हैं,आप ओबीओ के दो आयोजनों में 'लाइव महाउत्सव'और 'तरही मुशायरा'में सक्रिय दिखाई ज़रूर देते हैं,मैं जानता हूँ कि ग़ज़ल कहने का शौक़ आपमें जुनून की हद तक है, और आप मुश्किल ज़मीनों में भी अशआर कह लेते हैं,मेरा आपसे निवेदन है कि आप अपनी सक्रियता ओबीओ के मंच पर भी दिखाया करें,और अपनी ग़ज़लें भी मंच से साझा किया करें,और दूसरे रचनाकारों को भी अपनी प्रतिक्रया दिया करें और हौसला बढ़ाने में योगदान दें ।
अब आते हैं आपकी ग़ज़ल की तरफ़,'मीर'की मुश्किल ज़मीन में आपने ग़ज़ल कहने का अच्छा प्रयास किया है,जिसके लिये आप बधाई के पात्र हैं ।
कुछ महीने पहले 'मीर'की इसी ज़मीन का मिसरा:-

"ये धुआँ सा कहाँ से उठता है"ओबीओ के तरही मुशायरे के लिये तजवीज़ किया गया था,ये बात ध्यान देने योग्य है कि इस मिसरे पर मतला कहना बहुत दुश्वार अमल है और यही चीज़ इसे मुश्किल बनाती है,आपकी ग़ज़ल का मतला:-
'दर्द जो नातवां से उठता है
शोर वो आस्ताँ से उठता है'
ये मतला नहीं दो अलग अलग मिसरे हैं,जब तक इनमें रब्त पैदा नहीं होगा ये मतला नहीं बन सकता,अब इसे कैसे बनाएंगे देखिये,आपके मिसरों में सारी बात दो शब्दों पर टिकी है,"जो"और "वो"इन्हें बदल देने से दोनों मिसरों में वो रब्त भी पैदा हो जायेगा जिसकी ज़रूरत है,और वो शब्द हैं "जब"और "इक"अब मतला देखिये:-

"दर्द जब नातवां से उठता है
शोर इक आस्ताँ से उठता है"

'गीत भी देख लो छिपे भीतर
दर्द दिल में जहाँ से उठता है'
इस शैर के ऊला मिसरे में बात साफ़ नहीं हो रही है,देखिये:-
"गीत भी देखना मिलेंगे वहाँ
दर्द दिल में जहाँ से उठता है"

'नाम की भूख ने बदल डाला
क्यों धुआँ अब यहाँ से उठता है'
इस शैर के दोनों मिसरे भी बेरब्त हैं,
ऊला मिसरा यूँ करें :-
"नाम की भूख ही बताएगी
क्यों धुआँ अब यहाँ से उठता है"

'प्यार बाँटो सदा ज़माने में
बोल सच्चा फुगां से उठता है'
इस शैर में क़ाफ़िया दोष है,यहाँ जो भी क़ाफिये इस्तेमाल होंगे वो ज़बर वाले होंगे और "फुगां"शब्द में 'पेश'है,यानी 'उ'की मात्रा,यहाँ 'ज़बाँ' किया जा सकता है ।
उम्मीद है मेरी बातों पर ध्यान देंगे ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 6:54pm

आदरणीय मुनीश जी, ख़ुदा--सुखन मीर तकी "मीर" साहब की जमीन पर बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है. इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई. सादर 

कृपया ध्यान दे...

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