2122 2122 212
रोज करता खेल शह औ मात का।
रहनुमा पक्का नहीं अब बात का।।
कब पलट कर छेद डाले थालियाँ।
कुछ भरोसा है नहीं इस जात का।।
पत्थरों के शह्र में हम आ गए।
मोल कुछ भी है नहीं जज़्बात का।।
ख्वाहिशें जब रौंदनी ही थी तुम्हे।
क्यूँ दिखाया ख़्वाब महकी रात का।।
इंकलाबी हौसलें क्यों छोड़ दें।
अंत होगा ही कभी ज़ुल्मात का।।
मेंढकों थोड़ा अदब तो सीख लो।
क्या भरोसा बेतुकी बरसात का।।
पीढ़ियों से तख़्त पर काबिज़ तुम्ही।
कौन दोषी आज के हालात का।।
बस बजाना गाल जिनका काम है।
क्या पता उनको पवन औकात का।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आद. डॉ आशुतोष मिश्र जी। इस् उत्साहवर्धन के लिये हृदय से आभार
आद जयनित मेहता जी, बहुत बहुत आभार आपका
आदरणीय डॉ पवन जी ..हर शेर उम्दा ..वर्तमान संदर्भो को उकेरती, राजनीतिक परिद्रश्य की स्थिति से अवगत कराती शानदार शसक्त ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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