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सुन्दर रचना
आदरणीय सुनील जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. हार्दिक बधाई. ग़ज़ल के अशआर पर तार्किकता एवं बह्र के हवाले से कुछ बातें साझा कर रहा हूँ-
हकीकत है परेशां हूँ मगर हारा कहाँ हूँ मैं।.................. कथ्य की तार्किकता पर विचार कीजियेगा
हवा हूँ तरबतर खुश्बू चमन तेरे रवाँ हूँ मैं।
अजानो में, भजन में एक ही तो अक्स है मेरा,...................... तो, बह्र निभाने के लिए
दुआ हूँ मैं दया हूँ मैं सभी से आशना हूँ मैं। 3
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गमों की बात ही क्या हाथ जो दो हाथ में मेरे,... यहाँ 'दो हाथ' का निहितार्थ 'दोनों हाथ' या' हाथ देने' के अर्थों का भ्रम पैदा कर रहा है.
चले आओ सितारों में चमकता कहकशां हूँ मैं। 4
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अदालत से बचोगे तुम जहां भर के निगाहों से,
छुपाकर जो किये हो जुर्म उसका राजदां हूँ मैं। 5............... छुपाकर जो किये हैं जुर्म ... कहना ज्यादा सही नहीं होगा?
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पसारो पाँख को अपने उड़ो जितना भी दिल चाहे,............ पसारो पंख अपने फिर उड़ो जितना भी दिल चाहे
नहीं है ओर कोई छोर जिसका आसमाँ हूँ मैं। 6
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करो क्यों भेद मुझसे धर्म के नाम पर तुम सब,.......... करो मत भेद मुझमें यूं धरम के नाम पर तुम सब ---- मिसरा बेबह्र हुआ इसलिए
कुरानों और ग्रंथो में बराबर ही बयां हूँ मैं। 7
सादर
आदरनीय सुनील भाई , अच्छी गज़ल कही है , बधाइयाँ स्वीकार करें ।
आ. दो एक बात खना चाहता हूँ --
1 - हकीकत हूँ परेशां हूँ कभी हारा कहाँ हूँ मैं -- इस मिसरे मे ' कभी ' को अभी कर के देखियेगा
2- आशना , काफिया सही नही है -- बयाँ कहाँ .... आदि के साथ
3- करो क्यों भेद मुझसे धर्म के नाम पर तुम सब, -- इस मिसरे की लय जाँच लीजियेगा - बे बहर लग रहा है
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