सच ,लगने लगा पराया ...
न मेरा
आना झूठ था
न तेरा
जाना झूठ था
दूर जाने का मुझसे
बस बहाना
झूठ था
जीती रही
जिस शब् को
हकीकत मानकर
सहर की शरर पे सोया
वो
अफ़साना झूठ था
बादे सबा
में लिपटी
सदायें
यूँ तो आयी थीं
तेरे बाम से मगर
उसमें छुपा
हिज़्रे ग़म को
बहलाने का
तराना झूठ था
इक झूठ
तूने जिया
इक झूठ
मैंने जिया
न सच
तुझे भाया
न सच
मैंने अपनाया
कैसी की
तूने मुहब्बत
झूठ
बन गया सच
और सच
लगने लगा पराया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Mahendra Kumar जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी प्रस्तुति में निहित भाव आपकी आत्मीय प्रशंसा के आभारी हैं। आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय सतविन्दर कुमार जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
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