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दोस्ती भी सँभल के करता हूँ

बह्र 2122 1212 22

मै अनायास आह भरता हूँ
जब गली से तेरी गुजरता हूँ।

डोर नाजुक बहुत है रिश्तों की
दोस्ती भी सँभल के करता हूँ।

साथ माँ की दुआयें है जिनसे
दिन ब दिन ज़ीस्त में निखरता हूँ।।

कोई मजहब नहीं मेरा यारों
मै तो इंसानियत पे मरता हूँ।।

हौसलों में उड़ान है मेरे
आँधियों के भी पर कतरता हूँ।

मैं भी नेता बनूँ मगर कैसे
मैं कहाँ बात से मुकरता हूँ।।

तेरी यादों के तेज झोंको से
रोज़ मैं टूट कर बिखरता हूँ।।

जिन्दगी तू खफ़ा न हो जाये
तेरी रुसवाइयों से डरता हूँ।।

फैज़ उस्ताद का रहे मुझ पर
बह्र-ए-अशआर में उतरता हूँ।।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by नाथ सोनांचली on December 21, 2016 at 5:32pm
आदरणीय महेन्द्र कुमार जी सादर आभिवादन, आपकी प्रतिक्रिया मिली, उससे उत्साह बढेगा, आभार आपका
Comment by Mahendra Kumar on December 21, 2016 at 12:01pm
आदरणीय सुरेन्द्र जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखी है आपने। मेरी तरफ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
Comment by नाथ सोनांचली on December 21, 2016 at 4:02am
आद0 मिथिलेश वामनकर जी सादर अभिवादन, आपका स्नेहमयी बधाई मिली, लिखना सफल हुआ

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 21, 2016 at 12:23am

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 

यारों को यारो किया जाना चाहिए. सादर 

Comment by रोहिताश्व मिश्रा on December 20, 2016 at 3:43pm
वाह
Comment by नाथ सोनांचली on December 20, 2016 at 3:19pm
आद0 समर कबीर साहब प्रणाम, ठीक कहाँ आपने
Comment by Samar kabeer on December 20, 2016 at 3:12pm
जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
कुछ अशआर में टाइपिंग मिस्टेक है उन्हें दुरुस्त कर लें:-
चौथे शैर में 'आधियो'को "आँधियों"कर लें
छटे शैर में 'यादो' को "यादों"कर लें।
सातवें शैर में 'रुस्वाइयों' कर लें ।
और आख़री शैर के सानी मिसरे में 'बहरे अशआर'को बह्र-ए-अशआर" कर लें ।

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