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ग़ज़ल : उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

बह्र : 2122 2122 2122 212

 

आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में

और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में

 

आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में

प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में

 

जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे

वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में

 

छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

 

ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ

पर हज़ारों वायरस हैं मच्छरों के हाथ में

 

काट दो जो हैं असहमत शोर है चारों तरफ

आदमी अब आ गया है ख़ंजरों के हाथ में

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2016 at 1:10pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेंद्र जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2016 at 1:09pm

बहुत  बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी

Comment by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on December 3, 2016 at 1:08pm

बहुत ही खूबसूरत रचना....."प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में" उस्तरे पर बहुत पैनी धार  है. बधाई बहुत बहुत!

Comment by Samar kabeer on December 2, 2016 at 2:48pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
Comment by नाथ सोनांचली on December 2, 2016 at 2:10pm
आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी बेहद उम्दा गजल, मतला तो माशाल्लाह
आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में
और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में
जैसे सबकी जुबाँ की बात आपने कह दी।
हर शैर पर दिली दाद कबूल फरमाएं।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 2, 2016 at 1:50pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, आपने लाजवाब ग़ज़ल कही है. आपके अंदाज़-ए-बयां के कायल तो है ही. ये शेर हालत और हालात देखते हुए क्या खूब हुआ है-

//छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में//

इस शानदार ग़ज़ल पर दाद कुबूल फरमाएं.

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