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सबसे अपावन क्रोध है, क्रोध ना मन में जनें !

थी भोर की बेला सुहानी, भीड़ गंगा तट जुटी !  

इक वृद्ध सन्यासी चला, गंगा नहा अपनी कुटी !

ओढ़े दुशाला राम नामी, गेरुवा पट रंग था !

 कर में कमंडल था सुशोभित, भस्म चर्चित अंग था !!

 

प्रभु नाम का शुभ जाप करता, साधु कुछ आगे बढा !

टकरा गया यति से युवा, तब दोष साधू ने मढ़ा !  

अंधे अरे सुन मूर्ख पागल ! क्या गजब तूने किया ?

पापी युवक छूकर मुझे तूने अपावन कर दिया !!

 

तन मन अपावन हो गया, बस आज तेरे संग में !

पावन बनूँगा मैं दुबारा, फिर नहाकर गंग में !

सबसे अपावन क्रोध है, उर में बसाया आपने !

बाहर निकाला औ उसे, मुझपर उछाला आपने !!

 

इस काज गुरुवर स्नान का, बस फर्ज तो  मेरा  बने !

बोला युवक नत भाव हो, प्रभु क्रोध ना मन में जनें !

बातें समझ यह ज्ञान की, वह साधु कुछ लज्जित हुआ !

मन से मिटाकर क्रोध सब, देता रहा वह बस दुआ !!  

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Satyanarayan Singh on November 14, 2016 at 10:40am

रचना  को अपना बहुमूल्य समय देकर  आपने मेरा उत्साहवर्धन किया अतएव आपका  भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय गिरिराज भंडारी जी 

सादर 

Comment by Satyanarayan Singh on November 14, 2016 at 10:39am

रचना  को अपना समय देकर  आपने मेरा उत्साहवर्धन किया अतएव आपका  हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय समर कबीर साहब  

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 9:37am

आदरनीय सत्य नारायण भाई , संदेश देती एक छोटी सी कहानी को आपने काव्य रूप दिया है , बहुत सुंदर , बहुत बधाई ।

Comment by Samar kabeer on November 7, 2016 at 5:21pm
जनाब सत्यनारायण जी आदाब,अच्छी लगी आपकी रचना,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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