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क्या तूने भी देखी कहीं दिवाली

"क्या तूने भी देखी कहीं दिवाली"

हे अबोध ! क्या तूने भी देखी कहीं दिवाली?
तमपूर्ण निशा में क्या कहीं मिली उजियाली?

मैंने तो उजियालों में उजियाले होते देखे,
विद्युत से जगमग महलों में दिये जलते देखे,
फुलझड़ियों के बीच छूटते कई अनार देखे,
खुले बाज़ारों में जगमग करती देखी दिवाली।
हे नन्हे ! क्या तुझे दिखी अँधियारों में खुशियाली?

कहकहों ठहाकों बीच गरजते हुए पटाखे सुने,
मैंने मधुर आरती बीच सुरीले मंगलगीत सुने,
ना ना बीच और और के आग्रह कई कई सुने,
मैंने बीच बधाई सन्देशों के सुनी दिवाली।
भूखे पेटों की सड़कों पे क्या तूने सुनी कौवाली?

मुझे भरे पेट में भी मिष्ठानों के स्वाद अनेक मिले,
मेरे वैभव को वृद्धि देते मा के नये वरदान मिले,
मंत्री, संत्री, अफसर, प्यादों के सत्कार मिले,
डलिया भर भर उपहारों में मुझे मिली दिवाली।
पतझड़ सी तेरी दिवाली में क्या कभी मिली हरियाली?
हे अबोध ! क्या तूने भी देखी कहीं दिवाली?
तमपूर्ण निशा में क्या कहीं मिली उजियाली?

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by रामबली गुप्ता on November 1, 2016 at 6:13am
भाव तो बहुत ही सुंदर लगा मुझे आद0 भाई वासुदेव जी लेकिन कहीं कहीं प्रवाह कम लगा मुझे। इस गीत को बराबर गुनगुनाते रहिये और जहां भी कुछ अटकाव लगे शब्दों को बदलकर प्रवाह सुंदर बनाइये। बाकी सब शुभ शुभ
सादर बधाई इस सुंदर रचना के लिए।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 31, 2016 at 2:51pm
आदरणीय कालीप्रसादजी आपके उत्साह वर्धन का बहुत आभार।
Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 31, 2016 at 11:07am

बहुत सुन्दर भाव ...सच है "भूखे पेटों की सड़कों पे क्या तूने सुनी कौवाली?"  जो भूखा है उसको क्या दिवाली और क्या होली ? ये सब तो धनवानों का है | बहुत सुन्दर 

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