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जनकवि (लघुकथा)

झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”

कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”

झील बोली, “मेरा निजी लाभ तो कुछ नहीं है। पर मैं नीचे की तरफ बहती तो स्तर भले ही गिर जाता लेकिन मेरा पानी साफ हो जाता और ये इंसानों और जानवरों के बहुत काम आता। इससे धरती के नीचे का जलस्तर भी बढ़ जाता तथा मैं जिस ज़मीन से होकर मैं बहती उसे भी उपजाऊ बना देती।”

कवि बोला, “फिर भी स्तर तो तुम्हारा गिरता ही, बढ़ता तो नहीं न।”

झील मुस्कुराकर बोली, “गिरते गिरते एक दिन सागर तक पहुँचती। सूरज से युद्ध करती और इस युद्ध के कारण उत्पन्न ऊर्जा से भाप बनकर ऊपर उठती तथा बादल बनकर हवाओं की मदद से आसमान को छू लेती । पर मैं तो कैद हूँ, ऐसा नहीं कर सकती। लेकिन सुनो, तुम तो आज़ाद हो न।”

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(मौलक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 10, 2017 at 7:44pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 10, 2017 at 6:04pm

आदरणीय बड़े भाई धमेंद्र जी, अद्भुत लघुकथा..... वाक्य विन्यास चकित करता है और बिम्ब शैली का जादू सिर चढ़कर बोलता है. ऐसा करारा व्यंग्य, ऐसा तीखा कटाक्ष, वह भी इतनी कोमल बिम्बात्मक भाषा में. अद्भुत. अपने शीर्षक को सार्थक करती इस सफल लघुकथा पर हार्दिक बधाई. सादर ...

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 14, 2016 at 10:22pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण रामानुज जी

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 1, 2016 at 4:34pm

क्या बात है | अगर कवि की रचना जन जन तक नहीं पहुँचे, सरल और सहज न हो तो क्या लाभ | लुघुकथा के माध्यम से सुंदर संदेश ही इस लघु कथा की सफलता है | हार्दिक बधाई श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 27, 2016 at 6:39pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया नीता जी

Comment by Nita Kasar on November 11, 2016 at 7:31pm
तुम तो आज़ाद हो ना ,मजबूरी है अपनी अपनी पर कवि मन के लिये कैसा बंधन बहुत उम्दा कथा है बधाई आपको आद० धर्मेंद्र कुमार ब्रज जी ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 30, 2016 at 4:44pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 30, 2016 at 3:47pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया राहिला जी

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 29, 2016 at 7:09pm
बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक रचना
Comment by Rahila on October 27, 2016 at 12:00pm
वाह.. बेहद शानदार रचना आदरणीय!कितनी खूबसूरती से उपमा दे आपने बेहतरीन रचना का सृजन कर डाला ।बहुत बधाई।

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