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न अब मेरे बस में है मेरा क़लम (ग़ज़ल)

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२

 

बिखर जाएँ चूमें तुम्हारे क़दम

सुनो, इस क़दर भी न टूटेंगे हम

 

किये जा रे पूँजी सितम दर सितम

इन्हें शाइरी में करूँगा रक़म

 

जो रखते सदा मुफ़्लिसी की दवा

दिलों में न उनके ज़रा भी रहम

 

ज़रा सा तो मज़्लूम का पेट है

जो थोड़ा भी दोगे तो कर लेगा श्रम

 

जो मैं कह रहा हूँ वही ठीक है

सभी देवताओं को रहता है भ्रम

 

मुआ अपनी मर्ज़ी का मालिक बना

न अब मेरे बस में है मेरा क़लम

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 28, 2016 at 11:50am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया प्राची जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 28, 2016 at 11:49am

बहुत बहुत शुक्रिया  आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 28, 2016 at 11:49am

बहुत बहुत शुक्रिया  आदरणीय सौरभ जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 28, 2016 at 11:48am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर साहब। आप ठीक कह रहे हैँ "क़लम"पुल्लिंग है। सुधार करता हू‍ँ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 27, 2016 at 7:19pm

सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० धर्मेन्द्र जी 

सभी अशआर पसंद आए 

हार्दिक बधाई 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 27, 2016 at 7:04pm
वाह आदरणीय बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल...हार्दिक बधाई

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 27, 2016 at 5:35pm

एक अच्छी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आ० धर्मेन्द्र जी. 

ज़रा सा तो मज़लूम का पेट है

जो थोड़ा भी दोगे तो कर लेगा श्रम... यह शेर गहरे महसूस हुआ है. 

बहुत खूब ! बहुत खूब ! 

Comment by Samar kabeer on October 27, 2016 at 5:04pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
आख़री शैर में "क़लम"पुल्लिंग है,देखिएगा ।

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