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2122 1212 22/112

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आह मज़लूम ने भरी होगी.
आग यूँ ही नहीं लगी होगीI

एक गोली कहीं चली होगी.
एक दुनिया उजड़ गई होगीI

शर्म से लाल हो गया पीपल,
बेल कोई लिपट गई होगीI

झूमकर नाचने लगी मीरा, 

शाम की बांसुरी बजी होगीI

जुगनुओं का हुजूम जब निकला,
चाँद की नींद उड़ गई होगीI

आज तक भी है अनगढ़ा पत्थर,
जिसको छैनी बुरी लगी होगीI

रो रही अब कटी फटी सी पतंग,
डोर की बाँह छोड़ दी होगीI  


दर्द से आज तक हो नावाकिफ,
यार! तुम से न शायरी होगीI
.
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 17, 2016 at 4:12pm
वाह आदरणीय योगराज जी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल की हृदय से बधाई स्वीकार करें। शेर दर शेर दाद कुबूल करें।
Comment by नाथ सोनांचली on October 17, 2016 at 2:30pm
आदरणीय श्री योगराज जी सादर प्रणाम, आपने बढ़िया गजल कही है, किसी एक शेर को क्या कहूँ, मुझे सभी शेर एक से बढकर एक लगें। आपको अनेकानेक बधाई।
Comment by Ravi Shukla on October 17, 2016 at 1:30pm

अदरणीय योगराज जी बहुत बढि़या गजल कही है आपने शेर दर शेर दाद कुबूल करें काफी अंतराल से आपका कलाम पढ़ने को मिला 

इस शेर ने विशेष प्रभावित किया 

शर्म से लाल हो गया पीपल,
बेल कोई लिपट गई होगीI   वाह वाह । बधाई आपको इस सुन्‍दर गजल केे लिये 

Comment by PRAMOD SRIVASTAVA on October 17, 2016 at 12:47pm

आज तक भी है अनगढ़ा पत्थर 

जिसको छैनी बुरी लगी होगी

अच्छा संदेश है। बिना कष्ट सहे जीवन गढ़ नही सकता । बधाई  आपको ।

Comment by Seema Singh on October 17, 2016 at 11:54am
वाह वाह बहुत सुंदर सर,एक एक शेर अपने आप में पूरी कथा कहता हुआ।//रो रही अब कटी फटी सी पतंग,
डोर की बाँह छोड़ दी होगी// बेहद शानदार। बहुत बहुत बधाई सादर। I

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