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समझदारी--

'मेरे लिए क्या लायी, मेरे लिए क्या है", बच्चे हल्ला मचा रहे थे| बड़े भी कुछ कह तो नहीं रहे थे लेकिन उनकी भी नज़रें उसी की तरफ टिकी हुई थीं| नौकरी शुरू करने के दो महीने बाद श्रुति अपने कस्बे वाले घर लौटी थी और इस बीच घर के अधिकतर सदस्यों ने उससे कुछ न कुछ लाने की फरमाईस कर दी थी| अपनी सीमित तनख़्वाह में भी उसने सबके लिए कुछ न कुछ ले लिया था| एक किनारे बैठी उसकी दादी उसे बेहद प्यार भरी नज़रों से देख रही थी और इंतज़ार कर रही थीं कि कब सब लोग हटें तो वह अपनी पोती को लाड करें| श्रुति उनकी सबसे ज्यादा लाडली थी और माँ से ज्यादा उन्हीं के पास रहती|
श्रुति ने अपना बैग खोला और एक एक करके सब सामान निकलना शुरू किया| जिसका सामान होता उसे पकड़ाती और फिर वह ख़ुशी ख़ुशी उछलता हुआ निकल जाता| धीरे धीरे सब निकल गए और कमरे में सिर्फ उसकी माँ और दादी ही बचे| माँ को उसने एक सुंदर सा पर्स दिया और आकर दादी के गोद में लेट गयी| माँ को खटका कि इसने सबके लिए कुछ न कुछ लिया लेकिन अपनी दादी के लिए कुछ नहीं| लेकिन उनको दादी के सामने ये पूछना ठीक नहीं लगा और उन्होंने बाद में कुछ दिलाने के लिए सोच लिया| दादी ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा "बहुत दुबली हो गयी है मेरी बच्ची, लगता है कुछ खाने को नहीं मिलता था वहाँ"| फिर उन्होंने माँ को सहेजते हुए कहा "इस बार जब जायेगी तो घी का बड़ा वाला डब्बा इसको दे देना, कम से कम दाल में घी डाल के तो खा लेगी"|
श्रुति ने भी उनका हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए बोली "इस बार तुम मेरे साथ ही क्यों नहीं चलती दादी, फिर तुमको मेरी चिंता भी नहीं रहेगी और मुझे भी गर्मागर्म खाना मिलेगा"|
"कैसे चलूंगी रे तेरे साथ, इस उम्र में तो ठीक से चल फिर भी नहीं पाती मैं", दादी ने प्यार से उसका गाल सहलाया|
पापा भी उसे ढूंढते हुए अंदर आये और श्रुति ने उनको लाया हुआ कुर्ता पहना दिया| उनके खिले हुए चेहरे को देखकर उसका और दादी का भी चेहरा एकदम खिल गया| फिर श्रुति ने अपना पर्स उठाया और उसमें से रुपये का एक पैकेट निकाला और पापा को पकड़ते हुए बोली "पापा, आप दादी के लिए बाथरूम में एक कमोड लगवा दीजिये, उनको बहुत दिक्कत होती है"|
माँ और पापा एकदम अवाक रह गए और दादी की आँखों में आंसू आ गए| अब उन्होंने ध्यान दिया, श्रुति ने वही कपड़े पहने हुए थे जो उसने नौकरी पर जाने के पहले लिए थे| माँ ने उसे अपने सीने से कस के लगा लिया और पापा को यक़ीन हो गया "उनकी छोटी सी बेटी अब बड़ी और समझदार हो गयी है"|
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on October 17, 2016 at 12:37pm

बहुत बहुत आभार आ सुरेश कुमार कल्याण जी. 

Comment by विनय कुमार on October 17, 2016 at 12:36pm

बहुत बहुत आभार आ सुरेंद्र नाथ सिंह जी. 

Comment by विनय कुमार on October 17, 2016 at 12:35pm

बहुत बहुत आभार आ नीता कसार जी

Comment by Nita Kasar on October 16, 2016 at 8:21pm
बच्चे दादा,दादी की ज़रूरतें बख़ूबी समझते है पर सही समय पर ही कहते है।वे बच्चों का ख़्याल भी बहुत रखते है संवेदनशील कथा के लिये बधाई ।आद०विनय सिंह जी ।
Comment by नाथ सोनांचली on October 16, 2016 at 4:57pm
लघुकथा को पढकर एक बार तो भावुकता अंदर तक स्म गयी। बेहतरीन आदरणीय विनय कुमार सिंह जी। बधाई आपको। शेष उस्मानी जी ने कह ही दिया है।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 16, 2016 at 10:43am
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी बहुत ही मार्मिक कहानी है।हार्दिक बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by विनय कुमार on October 14, 2016 at 8:16pm

बहुत बहुत आभार आ शेख भाई, आपका सुझाव अच्छा है 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 14, 2016 at 6:30pm
बेहतरीन उम्दा कथानक पर बढ़िया भाव पूर्ण प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीय विनय कुमार सिंह जी। पहले अनुच्छेद में कुछ शब्द कम किए जा सकते हैं। सादर सुझाव मात्र।

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