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ग़ज़ल को ढूँढने, चलिए चलें खेतों में गाँवों में (ग़ज़ल)

1222   1222   1222   1222

न जाने धूल कब से झोंकता था मेरी आँखों में!
जो इक दुश्मन छुपा बैठा था मेरे ख़ैरख़्वाहों में!

भटकते फिरते थे गुमनाम होकर जो उजालों में!
हुनर उन जुगनुओं का काम आया है अंधेरों में!

फ़क़त इक वह्म था,धोखा था बस मेरी निगाहों का,
अलग जो दिख रहा था एक चेहरा सारे चेहरों में!

हक़ीक़त के बगूलों से हुए हैं ग़मज़दा सारे,
हुआ माहौल दहशत का,तसव्वुर के घरौंदों में!

ख़ता इतनी सी थी हमने गुनाह-ए-इश्क़ कर डाला,
तभी तो ख़ुदकुशी-दर-ख़ुदकुशी पाई है किश्तों में!

मैं अपने दिल की कहने जब भी उसके पास जाता हूँ,
वो उलझा देता है मुझको ज़माने भर की बातों में!

भले तनहाइयाँ हों, हम कभी तनहा नहीं रहते,
उसी के लम्स का एहसास रहता है हवाओं में!

निगाह-ए-यार, दर्द-ए-दिल, फरेब-ए-इश्क़ से कुछ दूर,
ग़ज़ल को ढूंढने, चलिए चलें खेतों में, गाँवों में!

हमीं "जय" ज़ीस्त की ज़ुल्फ़ों के साये से नहीं निकले,
वगरना मौत तो कब की हमें ले लेती बाहों में!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2016 at 10:02pm

निगाह-ए-यार, दर्द-ए-दिल, फरेब-ए-इश्क़ से कुछ दूर,
ग़ज़ल को ढूंढने, चलिए चलें खेतों में, गाँवों में!........बेहद शानदार रचना

Comment by जयनित कुमार मेहता on September 30, 2016 at 3:32pm
आदरणीय रामबली गुप्ता जी, यह आपका बड़प्पन है! अपना स्नेह और सहयोग बनाए रखें और हृदय से धन्यवाद स्वीकार करें।
Comment by जयनित कुमार मेहता on September 30, 2016 at 3:30pm
आदरणीय वासुदेव जी, हार्दिक धन्यवाद प्रेषित है!
Comment by जयनित कुमार मेहता on September 30, 2016 at 3:29pm
आदरणीय सुरेश जी, हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें!
Comment by जयनित कुमार मेहता on September 30, 2016 at 3:29pm
आदरणीय समर कबीर जी,अपनी कोशिश पर आपसे इस तरह की प्रतिक्रिया पाकर फूले नहीं समा रहा हूँ मैं। यह आप बड़े जनों का ही आशीर्वाद और इस मंच के सहयोगात्मक भावना से ही मुमकिन हो सका है। बहुत बहुत धन्यवाद आपको! सादर!!
Comment by रामबली गुप्ता on September 30, 2016 at 5:32am
वाह वाह आद0 भाई जयनित कुमार जी। ज्यादा क्या कहूँ जो कहना था वो तो आद0 समर भाई साहब ने कह दिया है अब तो बस यही कहूँगा कि बल भर बधाई लीजिये इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on September 27, 2016 at 10:55am
आ.जयनीत कुमारजी

ख़ता इतनी सी थी हमने गुनाह-ए-इश्क़ कर डाला,
तभी तो ख़ुदकुशी-दर-ख़ुदकुशी पाई है किश्तों में!

बहुत ही लाजबाब शेर इस खूबसूरत ग़ज़ल का। तारीफ के लिए अल्फ़ाज़ नहीं है।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 27, 2016 at 10:29am
आदरणीय श्री जयनीत कुमार जी बहुत ही सुन्दर एवं सटीक सारगर्भित रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by Samar kabeer on September 26, 2016 at 10:56pm
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,क्या तारीफ़ करूँ आपकी ग़ज़ल की,बस झूम रहा हूँ,अल्फ़ाज़ की चुस्त बंदिश,रवानी,देखते ही बनती है,आपकी ग़ज़ल का सफ़र सही दिशा में हो रहा है,ये देख कर मुझे बहुत ख़ुशी हासिल हुई,इस क्रम को टूटने न देना ।
इस ग़ज़ल के हर शैर पर दिल से ढेरों दाद दे रहा हूँ,इसके साथ ही ढेरों मुबारकबाद भी,क़ुबूल फरमाएं ।

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