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122    122    122    122

बचा कर रखेगी दुआ हादसों से,

करो अबसे तौबा बुरी आदतों से|

कदम अब बढे है जमाने से आगे,

नहीं रोक सकते हमें पायलों से|

करार तमाचा जवाबी मिलेगा,

रहें अपने घर में कहो दुश्मनों से|

गरीबों को मारा खुले आसमाँ ने,

बरसती है आफत यहाँ बादलों से|

लो मुश्किल हुआ अब यहाँ सांस लेना,

हुए शेर मुजरिम गलत फैसलों से|

सजा बन रहे है मरासिम हमारे,

मिलेगी मुहब्बत यहाँ फासलों से|

मुहब्बत ये मेरी खता बन गयी है,

न पिघला तेरा दिल मेरे आंसुओं से|

सरिता पन्थी 

"मौलिक व अप्रकाशित "

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Comment

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Comment by Samar kabeer on September 25, 2016 at 10:23am
जी हां,इसमें भी ये दोष है,में लिखना भूल गया,इस मिसरे को यूँ किया जा सकता है:-
"मरासिम हमारे सज़ा बन गए हैं"
Comment by Mahendra Kumar on September 24, 2016 at 11:48pm
आदरणीया सरिता जी, तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का दोष "सजा बन रहे है मरासिम हमारे" में भी है। इस उम्दा ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई!
Comment by sarita panthi on September 23, 2016 at 10:07pm
आदरणीय समीर कबीर जी बहुत नवाजिश आपकी जो अपने एक नज़र देखा " सजा बन रहे है मरासिम हमारे " क्या इसमें तकाबुल ए रदीफ़ का दोष नहीं है ?
Comment by Samar kabeer on September 22, 2016 at 7:16pm
मोहतरमा सरिता पन्थी जी आदाब,पहली बार आपकी ग़ज़ल से रूबरू हुआ हूँ ,उम्दा ग़ज़ल कही आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे और चौथे शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का दोष आ गया है,जो मिसरों की तरतीब बदलने से दूर हो जायेगा ।
"ज़माने से आगे कदम अब बढ़े हैं"
"खुले आसमां ने गरीबों को मारा"
देखियेगा ।

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