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चूल्हे पर तपता
पतीला
आग की बेचैन
लपटें
माँ की कुछ बेबस
साँसे
बच्चे की खुली
किताबें
मन में आस की
तरंगे
पतिले के उबलते
पानी को
इंतज़ार है चावल
के कुछ बिन छने
दानो का
लगता नही की
शराबी
पिताजी
घर लौटेंगे
बिन झगड़ा कर
माँ से
बिन चादर
ही सो लेंगे
लगता नहीं
की दादी बेटे
की तरफ़दारी
से बच पाएँगी
दारू को भी
माँ की
वजह बतायेंगी
चूल्हा फड़फड़ाके
ख़ुद ही
बिन पानी भूझ
जाएगा
बाबू बिन खाने
के आज
भी सो जाएगा
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by pratibha pande on September 19, 2016 at 7:45pm

सुंदर अभिव्यक्ति ..  बधाई आपको आदरणीया  दीपू मंद्र्वाल  जी ...भूझ /  बुझ 

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 18, 2016 at 3:46pm
बहुत खूब आदरणीया इस तरह की रचनाएँ यथार्थ को दर्शाती हैं । बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by Samar kabeer on September 18, 2016 at 3:45pm
मोहतरमा दीपू जी आदाब,अच्छी लगी आपकी कविता,बधाई स्वीकार करें ।
Comment by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on September 16, 2016 at 2:46pm

बेहद उम्दा महोदया !!! आपको बधाई !!!

Comment by Abha saxena Doonwi on September 16, 2016 at 12:56pm

वाआआआआआअह बहुत सुंदर रचना बधाई 

Comment by Shyam Narain Verma on September 16, 2016 at 10:27am
वाह ! बहुत खूब | सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई

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