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"मैं जा रही हूँ घर छोड़कर, मुझे रोकना मत", फोन पर रितू को ये कहते सुनकर सलिल चौंक गया|
"क्या हुआ, मैंने तो सब कुछ भुला दिया है, तुम भी क्यूँ नहीं भूल जाती सब कुछ", उसने तुरंत पूछा|
"वही तो नहीं कर पा रही हूँ, मैं इंसान हूँ, तुम्हारी तरह देवता नहीं", बोलते बोलते वो सुबकने लगी|
"मैं आ रहा हूँ, एक बार मिलने के बाद बेशक चली जाना, मैं रोकूंगा नहीं", कहते हुए उसने फोन रख दिया और ऑफिस से निकल कर घर चल पड़ा| घर पहुँचा तो दरवाज़ा खुला हुआ ही था, वो अंदर कमरे में पहुँचा, रितू अपना ब्रीफकेस तैयार करके बैठी थी|
"मैंने कुछ गलत कह दिया क्या तुमसे, आजकल काम के तनाव में परेशान रहता हूँ रितू| मन से निकाल दो सब कुछ और फिर से नए सिरे से शुरू करो जिंदगी" सलिल ने उसका हाथ पकड़ लिया|
एकदम से रितू फूट फूट कर रोने लगी और उसने सलिल का हाथ झटक दिया| "तुम कुछ कहते क्यूँ नहीं मुझे, आखिर जो गलती मैंने की है, उसके लिए अगर तुमने मुझे मारा होता, एक बार धक्के मार के घर से निकाल दिया होता, तो शायद मेरा अपराधबोध कुछ कम हुआ होता| अब तुम्हारा सामना करने की हिम्मत मुझमे नहीं है, मुझे प्लीज आज़ाद कर दो", कहते हुए रितू उठी और ब्रीफकेस उठाकर चलने लगी|
"अच्छा, सिर्फ इतना बता दो, अगर ये गलती मुझसे हुई होती तो क्या तुम मुझे माफ़ नहीं करती| तुम जरूर करती रितू, तो फिर मैंने किया तो इसमें परेशानी कैसी| असली आज़ादी तो एक दूसरे को पूरा स्पेस देने में है, पूरी तरह से स्वीकार करने में है, मत जाओ प्लीज", सलिल ने उसका ब्रीफकेस लेकर रख दिया| सलिल के आगोश में रितू की हिचकियाँ कम होने लगीं, अपराधबोध आँसुओं के जरिये निकल रहा था|
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on August 18, 2016 at 1:00pm

बिलकुल सही कहा आपने आ डॉ विजय शकर जी, खुद को माफ़ करने की कुव्वत सबमे नहीं होती| आभार आपका 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 18, 2016 at 5:17am
अपराध बोध स्वयं में बहुत ही कष्टप्रद होता है क्योंकि स्वयं को कोई क्षमा नहीं कर पाता है।
आदरणीय विनय कुमार सिंह जी , बधाई , इस प्रस्तुति पर , सादर।
Comment by विनय कुमार on August 17, 2016 at 8:55pm

बहुत बहुत आभार आ डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, शुक्रिया आपके सुझाव के लिए| इसी तरह मार्गदर्शन करते रहिये

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 17, 2016 at 8:14pm

आ० विनय जी आपकी कलम से हे ऐसी व्यवस्थित कथा निकल सकती है .अपराधबोध आँसुओं के जरिये निकल रहा था| --लघु कथा के लिहाज से यह पंक्ति अनावश्यक जान पड़ती है सादर ,

Comment by विनय कुमार on August 17, 2016 at 5:46pm

बहुत बहुत शुक्रिया आ कल्पना भट्ट जी

Comment by विनय कुमार on August 17, 2016 at 5:46pm

बहुत बहुत शुक्रिया आ समर कबीर साहब  

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 17, 2016 at 5:33pm
अपराधबोध में पश्चाताप होना । पति पत्नी की आपसी समझ बहुत जरुरी है बहुत सार्थक सन्देश देती हुई इस कथा के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय ।
Comment by Samar kabeer on August 17, 2016 at 3:05pm
जनाब विनय कुमार सिंह जी आदाब,बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी,बधाई स्वीकार करें ।

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