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ग़ज़ल खूबरू इक लिखूँ तुझ ग़ज़ल पर--------पंकज

122 122 122 122

इज़ाज़त ये तुमसे, है माँगे सुखनवर।
ग़ज़ल खूबरू इक, लिखे तुझ ग़ज़ल पर।।

कहो तो लिखे झील, आँखों को तेरी।
लिखे, चाहता हुस्न, का इक समंदर।।

गज़ब की हो तुम तो, विधाता की रचना।
बहुत खूबरू ज्यूँ, हिमालय का मंजर।।

ये होंठों की मुस्कान, है क़ातिलाना।
कलम लिख रहा है, इसे ज़िंदा खंज़र।।

है जो मरमऱी सा, बदन ये तुम्हारा।
सजा कर बसाया, इसे मन के अंदर।।

मौलिक-अप्रकाशित

(आदरणीय समर सर की इस्लाह पर सम्पादित व संशोधित)

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 17, 2016 at 4:01pm
आदरणीय अशोक सर बहुत बहुत आभार,सुझाव स्वीकार्य है
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 17, 2016 at 10:19am

आदरणीय पंकज कुमार मिश्र जी सादर, बहुत खूबसूरत गजल कही है आदरणीय समर कबीर साहब ने इशारा किया ही है.एक जगह और भी देखें "कलम लिख रहा है' रहा या रही देख लें. सादर.

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 16, 2016 at 5:53pm
आदरणीय जयनीत भाई सादर आभार
Comment by जयनित कुमार मेहता on July 16, 2016 at 5:51pm
खूबसूरत ग़ज़ल है आदरणीय पंकज जी।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 16, 2016 at 5:51pm
आदरणीय समर कबीर सर सादर प्रणाम, ग़ज़ल को आशीर्वाद प्रदान करने के लिए बहुत बहुत आभार। अभ्यास करके इस कमी को दूर करने की कोशिश करूँगा। सादर
Comment by Samar kabeer on July 16, 2016 at 5:17pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
कुछ अशआर में अल्फ़ाज़ की बंदिश चुस्त नहीं है, ग़ज़ल कहते वक़्त इसका ख़ास ध्यान रखें,दूसरे शैर के सानी मिसरे में "हुश्न" को 'हुस्न'कर लें ।

आख़री शैर का ऊला मिसरा साफ नहीं है, मुनासिब समझें तो इस तरह कर लें :-
"है जो मरमरी सा बदन ये तूम्हारा"
मरमरी शब्द में री के साथ बिंदी भी लगाएं,बच्चे से लिखा नहीं जा रहा ।

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