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कच्चा ये माटी का घर छोड़ता हूँ----Gazal

22 122 122 122

दर पर तुम्हारे बसर छोड़ता हूँ।

लो मैं तुम्हारा नगर छोड़ता हूँ।।

क्या फ़र्क है, ग़र है धड़कन तुम्हीं से।

मैं ज़िन्दगी की बहर छोड़ता हूँ।।

चिंता नहीं कर न आऊँगा मिलने।

कच्चा ये माटी का घर छोड़ता हूँ।।

तुमको नज़र लग न जाये किसी की

काज़ल ये दिल भस्म कर छोड़ता हूँ।।

खुद पे तुम्हारा यकीं कम न होये।

तुमको ग़ज़ल में अमर छोड़ता हूँ।।

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 17, 2016 at 8:04pm
बहुत बहुत शुक्रिया मनोज भाई
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2016 at 10:36pm
आदरणीय अशोक सर सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2016 at 10:35pm
आदरणीय जयनीत जी सादर धन्यवाद, इंगित मिसरे में एक है छूट गया है, उसे यूँ होना था-

क्या फ़र्क है, ग़र है धड़कन तुम्हीं से।
मैं ज़िन्दगी की बहर छोड़ता हूँ।।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2016 at 10:33pm
आदरणीय अजय जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2016 at 10:33pm
आदरणीय गिरिराज सर सादर आभार।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 13, 2016 at 10:28pm

वाह ! वाह ! बहुत सुंदर गजल कही है. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें आदरणीय पंकज कुमार मिश्र जी. सादर.

Comment by जयनित कुमार मेहता on July 12, 2016 at 3:09pm
अच्छी ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय पंकज जी।
एक मिसरा बेबह्र हो गया है-

"क्या फ़र्क ग़र है धड़कन तुम्हीं से।"
Comment by Ajay Kumar Sharma on July 12, 2016 at 11:25am
Bahut sunder .....

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 12, 2016 at 10:31am

आदरणीय पंकज भाई , अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 11, 2016 at 3:15pm
आदरणीय समर कबीर सर सादर प्रणाम। सुझाव सर्वथा उचित हैं। शहर को "नगर" कर देता हूँ।

4था शेर सुधारनें की कोशिश करता हूँ

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