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ग़म पे अब कहकहे लगाता हूँ (ग़ज़ल)

2122 1212 22(112)

ग़म पे अब कहकहे लगाता हूँ।
खुद ही अपना मज़ाक उड़ाता हूँ।

अश्क़ आँखों में छलछलाएँ लाख़,
गीत लेकिन ख़ुशी के गाता हूँ।

अब तो बे-नूर इक सितारे सा,
वक़्त बेवक़्त टिमटिमाता हूँ।

वक़्त क्या तोल पाएगा मुझको,
वक़्त का वज़्न मैं बताता हूँ।

बाद मुद्दत के चुक नहीं पाया,
जाने कैसा उधार-खाता हूँ।

मैं हूँ दीनारों की खनक, प्यारे
मैं ही इस दौर का विधाता हूँ।

ठोकरों से करूँ गिला कैसे,
तज्रिबे तो इन्हीं से पाता हूँ।

और हैं काम शाइरी के सिवा,
मैं ये हर वक़्त भूल जाता हूँ।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by shree suneel on July 11, 2016 at 8:36pm
ख़ूबसूरत ग़ज़ल... हार्दिक बधाई आपको आदरणीय जयनित भाई. सादर
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 6, 2016 at 10:45pm

ठोकरों से करूँ गिला कैसे,
तज्रिबे तो इन्हीं से पाता हूँ।..........वाह ! बहुत खूब.

खूबसूरत गजल हुई है आदरणीय जयनित जी हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 6, 2016 at 8:44pm

ठोकरों से करूँ गिला कैसे,
तज्रिबे तो इन्हीं से पाता हूँ।    --  लाजवाब ! आदरनीय गज़ल भी अच्छी हुई है , दिल से बधाइयाँ आपको ।

Comment by Ravi Shukla on July 6, 2016 at 12:05pm

आदरणीय जयनित जी बढि़या गजल हुई है बधाई 

 और हैं काम शाइरी के सिवा,
मैं ये हर वक़्त भूल जाता हूँ।   ये शेर बहुत अच्‍छा लगा 

Comment by Mahendra Kumar on July 6, 2016 at 11:10am
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल लिखी है जयनित भाई! आपको मेरी तरफ से बहुत-बहुत बधाई! ईश्वर करे आप ऐसे ही लिखते रहें, सादर!

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