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गंगा में बह रहे हैं फूल

आज तुम असमंजस में क्यूँ हो

देखकर गंगा में बहते फूलों को

जब तुम ही नहीं हो अब सुनने को

अब अपाहिज हुए अनुभूत तथ्यों को

अंधेरे बंद कमरे में कल रात

बड़ी देर तक ठहर गई थी रात

अकुलाती, दर्द भरी, रतजगी

आस्था रह न गई

ख़्यालों के अनबूझे ब्रह्माण्ड में

छटपटाती छिपी हुई कोई गहरी पहचान

भोर से पहले रात की अंतिम-दम चीखें

अन्धकार भरे अम्बर में जीवन्त पीड़ा

ऐसे में हमारे निजी अनुभूत तथ्यों ने

लिख कर फ़ातिया मेरी छाती पर

कल रात के काले फैलाव में कर ली 

ज़हर-जल पी कर आत्म-हत्या

कठिन

अधूरे हृदय-सम्बन्धों के उलझे प्रसंग

मार्मिक चोट का दिन-रात

दहला देता सहसा गंभीर आभास

विवेकी हृदय ने आज जला दी है अर्थी

मृत स्वरित संवेदन-तथ्यों की

आज ... 

गंगा में बह रहे हैं फूल उन तथ्यों के

कुछ नहीं है अब

ईश्वर को कहने को

        ------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 835

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 19, 2016 at 8:07pm

रुकती नहीं गंगा न हमारा वज़ूद जो कि गंगा के सापेक्ष है. लेकिन जो पल-पल बदलता रहता है. इस हर पल बदलते वज़ूद को किस शिद्दत से शाब्दिक किया है आपने, आदरणीय विजत निकोर साहब ! 

वास्तव में एक अनुभव जी गया. सादर धन्यवाद इस भावदशा को साझा करने केलिए. 

शुभ-शुभ

Comment by Sushil Sarna on June 15, 2016 at 8:36pm

कठिन
अधूरे हृदय-सम्बन्धों के उलझे प्रसंग
मार्मिक चोट का दिन-रात
दहला देता सहसा गंभीर आभास
विवेकी हृदय ने आज जला दी है अर्थी
मृत स्वरित संवेदन-तथ्यों की
आज ...
गंगा में बह रहे हैं फूल उन तथ्यों के
कुछ नहीं है अब
ईश्वर को कहने को

आदरणीय विजय निकोर जी निःशब्द हूँ ऐसी भावपूर्ण रचना में निहित गहन भावों की अभियक्ति को पढ़कर , नमन आपकी लेखनी को।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 5:50pm

आदरणीय बड़े भाई विजय निकोरे जी , बहुत मार्मिक भावों को समेटे आपकी इस रचना के लिये दिल से बधाइयाँ ।

Comment by maharshi tripathi on June 15, 2016 at 4:52pm
बहुत बढिया सर,हार्दिक बधाई
Comment by Shyam Narain Verma on June 15, 2016 at 10:29am

बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय

 सादर 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 14, 2016 at 2:47pm
बहुत ही गंभीर बात कह दी है इस बेहतरीन प्रस्तुति में। सादर हार्दिक बधाई आपको आदरणीय विजय निकोरे जी।
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 14, 2016 at 10:21am

आ० निकोर सर जी,  सादर प्रणाम..   आपने तो दुखती रग पर हाथ रख दिया....अतीव सुंदर रचना के लिये तहेदिल से बधाई स्वीकार करें.  सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 13, 2016 at 9:18pm

कठिन

अधूरे हृदय-सम्बन्धों के उलझे प्रसंग

मार्मिक चोट का दिन-रात

दहला देता सहसा गंभीर आभास

विवेकी हृदय ने आज जला दी है अर्थी

मृत स्वरित संवेदन-तथ्यों की

आज ... 

गंगा में बह रहे हैं फूल उन तथ्यों के

कुछ नहीं है अब

ईश्वर को कहने को-----------------सचमुच कुछ नहीं है इन दैवीय  भावों  के प्रति कहने को . नमंन आदरणीय पितृवत . सादर

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