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ग़ज़ल -नूर- नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,

१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)
.
नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,
कई ख़ुदा से, कई ख़ुद से सरगिराँ हैं बहुत.
.
किसी के मिलने मिलाने का पालिये न भरम,
ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत.
.
अभी ग़ज़ल में कई रँग और भरने हैं,
अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत.
.
सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,
सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.
.
परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
.
गुरूर ‘नूर” न कर; सिर्फ़ तू नहीं तन्हा,
ज़माने भर में तेरे जैसे राएगाँ हैं बहुत.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 6, 2016 at 12:21am

आदरणीय निलेश जी, हमेशा की तरह एक शानदार ग़ज़ल. ये मिसरा पढ़कर तो चमत्कृत हूँ- //ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत. // 

इस शानदार ग़ज़ल पर दिल से दाद ओ मुबारकबाद 

सादर 

Comment by Anuj on May 5, 2016 at 5:55pm

 हाय तबियत की रवानी तेरी ! 

Comment by Samar kabeer on May 5, 2016 at 2:54pm
जनाब निलेश जी आदाब,वाह बहुत ख़ूब क्या कहने अच्छी ग़ज़ल कही बधाई स्वीकार करें।
Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on May 5, 2016 at 1:04pm

KYAA BAAT HAI WAH WAH WAH

Comment by नादिर ख़ान on May 5, 2016 at 12:42pm

 मतले के शेर से मक्ते के शेर तक जवाब नहीं आपका आदरणीय नीलेश जी.... आपने कल लिखा था आपने शुरुआत की ३०० ग़ज़ल फेंकी है ये उन्हीं ग़ज़लों की तपिश है जो आज आपकी ग़ज़ल सोने की तरह चमक लिए हुए है | बहुत मुबारकबाद आपको .....


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2016 at 9:49pm
वाह बहुत बढ़िया आ. निलेश भाई बेहतरीन मत्ले से शुरूआत हुई आखिर तक बाँधे रखती है
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 4, 2016 at 7:48pm

सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से, 
सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत. 
.
परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर, 
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत. 
बहुत खूब | 

Comment by Sushil Sarna on May 4, 2016 at 7:26pm

परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
.
गुरूर ‘नूर” न कर; सिर्फ़ तू नहीं तन्हा,
ज़माने भर में तेरे जैसे राएगाँ हैं बहुत.

दिल कैसे न डूबे ऐसी ग़ज़ल के समंदर में .... खूबसूरत अहसासों की महक से लबरेज़ इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें आदरणीय नीलेश जी।

Comment by amita tiwari on May 4, 2016 at 7:26pm

परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर, 
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.

बहुत ही सजीव शब्द- चित्र ...........बधाई 

Comment by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:00pm
अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत. वाह

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