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आप पहले झोपडी तो इक बनाकर देखिये

२१२२/२१२२/२१२२/२१२

आप पहले झोपडी तो इक बनाकर देखिये

ख्वाब फिर महलों के भी दिल में सजा कर देखिये

मैं नहीं हूँ तो हुआ क्या ये ग़ज़ल मेरी तो है

मेरी गजलें  भी कभी तो गुनगुना कर  देखिये

जिस तरफ देखोगे, तुमको बस नजर आयेंगे हम

है मगर बस शर्त इतनी मुस्कुराकर देखिये

है विरह के बाद में ही यार मिलने का मज़ा

आग पहले ये विरह की खुद लगा कर देखिये

चीज़ मय अच्छी बुरी है आप मत बोले अभी

जाम पहले ओंठो से अपने लगाकर देखिये 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by गिरिराज भंडारी on April 25, 2016 at 8:04pm

आदरणीय आशुतोष भाई , बढिया गज़ल कही है , हार्दिक बधाई आपको गज़ल के लिये ।

मेरी ग़ज़लों भी कभी तो गुनगुना कर  देखिये   ---  मेरी गज़लें  -- करना सही होगा 

आग पहले ये विरह की खुद लगा कर देखिये   -- इस विरह की आग को दिल में लगा कर देखिइये    ---  वैसे आपका मिसरा बहर मे है फिर भी एक संभावना ऐसे भी कह सकने की है ।

Comment by Sushil Sarna on April 25, 2016 at 4:04pm

आप पहले झोपडी तो इक बनाकर देखिये
ख्वाब फिर महलों के भी दिल में सजा कर देखिये
मैं नहीं हूँ तो हुआ क्या ये ग़ज़ल मेरी तो है
मेरी ग़ज़लों भी कभी तो गुनगुना कर देखिये

बहुत सुंदर आदरणीय खूबसूरत अहसासों को आपने दिलकश अंदाज़ में पेश किया है। दिल से स्वीकार करें सर।

Comment by Shyam Narain Verma on April 25, 2016 at 10:33am
क्या बात है , बहुत उम्दा । हार्दिक बधाई ।
सादर

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