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उड़ रही हो तो ज़रा पंख क़तर जाती हूँ (एक ग़ज़ल)....//डॉ. प्राची

2122.1122.1122.22

मेरी हस्ती ही मिटा दे! यूँ अखर जाती हूँ।
उसकी नफरत का ज़हर देख सिहर जाती हूँ।

कश्ती कागज़ की हूँ पतवार कहाँ हासिल है,
बह चले धार जिधर संग उधर जाती हूँ।

आ! बिछा दे, मेरी राहों में ज़रा अंगारे
जितना जलती हूँ मैं उतना ही निखर जाती हूँ।

ज़िन्दगी देख मुझे खुश, यूँ पलट कर बोली-
"उड़ रही हो तो ज़रा पंख क़तर जाती हूँ !"

बुतशुदा काँच हूँ पत्थर के शहर में साकी,
जोड़ लो कितना भी, हर बार बिखर जाती हूँ।

आस की डोर मुझे संग ही ले जाए, पर
चाहतों में बँधी हर बार ठहर जाती हूँ।

आइना पूछ ही बैठा जो मिलीं नज़रें तो,
पर उसे कह न सकी, हाय! "किधर जाती हूँ?"

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Dr.Prachi Singh on March 3, 2016 at 4:15pm

 प्रयास पर हौसला अफजाई के लिए धन्यवाद आ० गिरिराज भंडारी जी, आ० रवि शुक्ल जी, आआ० श्याम नारायण वर्मा जी, आ० धर्मेन्द्र जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 3, 2016 at 4:13pm

आ० नादिर खान जी,

मतले के लिए आपका सुझाव सुन्दर है , पर ऊला मिसरे का भाव बदल रहा है उससे.

मतले को इस तरह कहा है अब, देखिएगा 

क़त्ल कर दे न मुझे ! सोच के डर जाती हूँ 

उसकी नफरत का ज़हर देख सिहर जाती हूँ 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2016 at 10:27am
ख़ूबसूरत अश’आर हुए हैं आदरणीया प्राची जी, दाद कुबूल करें।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2016 at 9:53pm

आ! बिछा दे, मेरी राहों में ज़रा अंगारे
जितना जलती हूँ मैं उतना ही निखर जाती हूँ ---   लाजवाब !!  आदरनीया प्राची जी बढ़िया गज़ल के लिए हादिक बधाई आपको ।

Comment by नादिर ख़ान on March 1, 2016 at 6:32pm

आदरणीया प्राची जी खूबसूरत ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद बहुत अच्छे भाव उभर कर आये हैं ।
क्या मतले के शेर को ऐसा कहा जा सकता है। ..

मेरी हस्ती ही मिटा दे! जो अखर जाती हूँ।
इतनी नफरत से न यूँ देख सिहर जाती हूँ।

Comment by Ravi Shukla on March 1, 2016 at 5:48pm

आदरणीया प्राची जी सुन्‍दर गजल के लिये बधाई स्‍वीकार करें ।

Comment by Shyam Narain Verma on February 29, 2016 at 12:37pm
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई ! 

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