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समा गया तुम में

कभी कभी ऐसा भी होता है एहसास
की सचमुच है सचमुच के आस पास
ऐसे ही जैसे स्वास निःस्वास
हवा पानी ये समूचा आकाश
हालाँकि मालूम है
की ये खाली एहसास है
 
फिर भी चाहत होती है कि काश ये सच होता
सच होता की पा लेना इतना सरल होता
इतना आसान होता
हाथ बढ़ाया जाना
और उसमें पूरा का पूरा आकाश भर जाना
न सिर्फ एक हाथ में
बल्कि पूरे विश्वास में
हर स्वास में उच्छ्वास में
 
लेकिन समस्या है
समस्या यहीं है पहाड़ जैसी
खड़ी की खड़ी अड़ी की अड़ी
स्व के इलावा समस्त को कोसना
गली को भूलना गमलों को परोसना
 
चलो छोडो ये सब
कर भी क्या लिया हासिल हमेशा की तरह
आज भी वैसे ही केंकड़े से
मोटी खाल में सुरक्षा सा एहसास
 
आओ
आओ आज तुम्हारी बात करते हैं
चौसर की चौबारों की
खाली और अम्बारों की
असह्य  बाज़ारों की
झूठी अखबारों की
बात करते हैं
 
इन्ही में हो जाएगी सब बातें
हमारी न सही तुम्हारी ही बातें 
बस एक ही सवाल पूछना है बाकि
कि कैसे हो पाया है तुमसे
कि तुम ही तुम समाये  हो इन सब में
और समस्त समा गया तुम में
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by amita tiwari on February 7, 2016 at 8:09pm

बहुत आभार .... बहुत शुक्रिया ।

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2016 at 11:55pm

आदरणीया अमिता जी आपकी प्रस्तुति का प्रवाह मुग्ध कर रहा है और भाव सीधे दिल में उतरते हुए से है. इस शानदार प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई 

Comment by amita tiwari on February 6, 2016 at 7:43pm

प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद…"

Comment by Sushil Sarna on February 6, 2016 at 6:59pm

आदरणीया अमित तिवारी जी दार्शनिक तथ्य को समेटे इस प्रवाहमयी  प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। 

Comment by Samar kabeer on February 6, 2016 at 2:21pm
मोहतरमा अमिता तिवारी जी आदाब,आपकी ये प्रस्तुति भी ख़ूब है,बधाई स्वीकार करें !

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