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चाय के बोलते कप (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

मोर्निंग-वॉक से लौटते वक़्त आज ख़ान साहब मुहल्ले के कुछ घरों की खिड़की पर रखे चाय के कपों की कुछ दिलचस्प फोटो लेकर घर लौटे ही थे कि अपने घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर छज्जे पर भी चाय के दो कपों को देख कर चौंक गये। ये वाले कप पिछले महीने ही तो मेले से ख़रीद कर लाये थे। बड़ी हैरानी से बेगम साहिबा से उन्होंने पूछा- "क्यों जी, ये क्या माज़रा है, दो कप वहां क्यों रखे हुए हैं?"

"अरे, वो मालती बाई आती है न, अपने मुहल्ले की साफ.-सफ़ाई करने वाली, उसको चाय पिलाने के लिए! कभी-कभी उसके आदमी को भी! "

"तो उन्हें धोकर अन्दर क्यों नहीं रख लेतीं?"

"आप भी कैसे सवाल करते हो? उनकी जात पता नहीं क्या आपको? और वे कप थोड़े 'चटक' भी तो गये थे! हमारे किस काम के?" - बेगम साहिबा ने एक कप में चाय उड़ेलते हुए कहा।

"लेकिन बेगम साहिबा, आप तो रोज़ सबेरे उस मालती बाई से सहेली की तरह बतियाती हो, फिर सहेली के साथ ऐसा बर्ताव.....!"

"सामने वाली मिसेज शर्मा भी ऐसा ही करती हैं, अपने घर के सामने की नाली अच्छी तरह साफ़ हो जाये, झाड़ू अच्छे से लग जाये, इसके लिए यह सब करना पड़ता है जनाब!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on January 19, 2016 at 5:25pm

आदरणीय शेख साहेब नमन आपको  ...............मर्मस्पर्शी  लघुकथा ............बधाई स्वीकार करें|

Comment by नादिर ख़ान on January 19, 2016 at 5:23pm

जनाब उस्मानी साहब, चाय के कप के माध्यम से आपने मनुष्य की संकीर्ण मानसिकता को उजागर किया ।
आप जो विषय चुनते है वो अक्सर हमारे आस पास के ही होते है जिससे आपकी पैनी निगाह का पता चलता है।
बहुत बधाई आपको उत्तम रचना कर्म के लिए ..

Comment by TEJ VEER SINGH on January 19, 2016 at 12:49pm

हार्दिक बधाई अदरणीय शेख उस्मानी जी!बेहतरीन प्रस्तुति!

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