आपकी तालीम का हर अर्थ कुछ दोहरा तो है
आकाश पर बादल नहीं पर हर तरफ कोहरा तो है
बादशाहों की हमेशा ज़िन्दगी महफूज़ है
लड़ने-मरने के लिए शतरंज में मोहरा तो है
इस महल में अब खज़ाना तो नहीं बाकी रहा
द्वार पर दरबान है, संगीन का पहरा तो है
शोर करना हर नदी की चाहे हो आदत सही
ये समंदर हर नदी से आज भी गहरा तो है
तुम क़सीदे खूब पढ़ लो पर यहाँ हर आदमी
हो न गूंगा आज लेकिन, आज भी बहरा तो है
तुमने कांटे साफ़ कर आसां किया चाहे सफ़र
दूर तक है धूप अब भी, दूर तक सहरा तो है
"मौलिक व अप्रकाशित"
- डॉ. राकेश जोशी
Comment
आदरणीय Ravi Shukla जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
तुम क़सीदे खूब पढ़ लो पर यहाँ हर आदमी
हो न गूंगा आज लेकिन, आज भी बहरा तो है
बहुत शानदार गजल। लगता है दुष्यंत जी का बहुत असर है।
आदरणीय डॉ राकेश जी ग़ज़ल के लिये आपको बहुत बहुत बधाई । आपकी गजल के हवाले से आदरणीय समर साहब से काफी जानकारी मिली उनका भी बहुत बहुत आभार यही वो उपलब्धि है जो यहां सीखने और सिखाने के सूत्र वाक्य से हम ग्रहण करते है चर्चा काफी अच्छी रही आप सभी का आभार । सादर
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
आदरनीय डा. राकेश भाई , स्व. दुश्यंत कुमार की जमीन पर बहुत खूब सूरत गज़ल कही है , आपको दिली मुबारक बाद ग़ज़ल के लिए ।
मै भी आदरनीय समर भाई जी की सलाह से सहमत हूँ -- आपकी गज़ल मे क़ाफिया दोष पूर्ण है , खयाल कीजियेगा ।
मतले मे -- कोहरा और मोहरा शब्द लेकर आपने काफिया - ओहरा तय किया है , इस्के अनुसार आपका - पहरा , गहरा सहरा और बहरा को हम काफिया लेना गलत है । यहाँ आपका काफिया - अहरा - तय हो रहा है ॥
आदरणीय समर कबीर जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
ग़ज़ल के तकनीकी पक्ष में मैं ज़रा कमज़ोर हूँ. शब्द की त्रुटि स्वीकार्य है. ट्रांस्लितेरते करने में अक्सर ऐसा हो जाता है, पर कमी मेरी है. रहा सवाल क़ाफ़िए का तो
दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल है शायद इससे कुछ बात बने:
एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली-पहली बार उड़ा
मौसम एक गुलेल लिये था पट-से नीचे आन गिरा
बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा
हमने घर बैठे-बैठे ही सारा मंज़र देख लिया
चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की
सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा
सहने को हो गया इकठ्ठा इतना सारा दुख मन में
कहने को हो गया कि देखो अब मैं तुझ को भूल गया
धीरे-धीरे भीग रही हैं सारी ईंटें पानी में
इनको क्या मालूम कि आगे चल कर इनका क्या होगा
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
आदरणीय सुशील जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
आदरणीय शेख शहज़ाद जी,
सादर नमस्कार.
मेरी ग़ज़ल पर आपकी टिप्पणी के लिए आपको धन्यवाद.
मैं आपका आभारी हूँ.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी
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