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सुरेखा कब से देख रही थी आज माँ-बाबूजी पता नहीं इतना क्या सामान समेट रहे है। बीच मे ही बाबूजी बैंक भी हो आए.एक दो बार उनके कमरे मे झांक भी आयी चाय देने के बहाने मगर पूछ ना पाई।
"माँ-बाबूजी नही दिख रहे ,कहाँ है.?"सुदेश ने पूछा
"अपने कमरे मे आज दिन भर से ना जाने क्या कर रहे है। मैं तो संकोच के मारे पूछ भी नही पा रही.तभी---
आप कहाँ जा रहे है बाबूजी आप ने पहले कुछ भी नहीं बताया.सुदेश बोल पडा--
मैं और माँ अब गाँव मे रहेंगे।
"हमसे क्या गलती हो गई माँ??,बाबूजी??"
बस बेटा गाँव का घर अब हमे पुकार रहा है.वहा हमारी १-२ बीघा ज़मीन है उसी मे भाजी- तरकारी लगा लेगे , फिर मेरी पेंशन काफ़ी है हम-दोनो के लिये,तुम चिंता ना करो।
बहुत भाग-दौड़ कर ली ता उम्र पैसे और तुम्हारी शिक्षा के लिये.अब बस सुकून के दो पल प्रकृति के सानिध्य मे बिताना चाहते  है.. ये हमारे वानप्रस्थाश्रम का समय है।
-- सुरेखा!!!ये लो इस घर की चाबियाँ आज से यह तुम्हारा हुआ।
पत्नी का हाथ थामते हुए बोले---"चलो जानकी!! अब लौट चले।"
नयना(आरती)कानिटकर
०४/१२/२०१५
मौलिक एंव अप्रकाशित

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Comment by vijay nikore on December 16, 2015 at 3:02pm

संवेदनशील अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीया नयना जी।

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on December 6, 2015 at 11:46pm

आदरणिय शुभ्रांशु पांडे जी आपने कथा के मर्म को बखुबी समझा इस हेतु आपका बहूत-बहूत धन्यवाद

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on December 6, 2015 at 11:46pm

नीता जी आभार आपका रचना को इतना गहन पढकर प्रतिसाद दिया

Comment by Shubhranshu Pandey on December 6, 2015 at 11:15pm

आदरणीया नयना जी, 

कथा में एक अलग अन्तरधारा बहती है.

माँ पिता गाँव जाने को तैयार हो रहे हैं किन्तु बहु उनसे कुछ भी पूछ नहीं रही है. मां पिता के चुप- चाप जाने का कारण संवाद की कमी है.

अचानक गाँव की याद भी सम्बन्धों की जटिलता को बता रही है.

कथा का चरम तब आता है जब माँ अपनी बहू को घर की चाभी देती है. ये चाभी का आदान- प्रदान घर पर सत्ता के अधिकार का द्योतक है. मां अपने साथ बहु के अधिकार को सम्हाल नहीं पा रही है. इसी से गांव के घर जाना उस सत्ता को पुनः पाने की कोशिश है. गाँव को छोड़ने के पीछे भी शायद यही कारण हो सकता है.

कथा अपने साथ कई आयाम को दिखाता जा रहा है सुन्दर कथा के लिये बधाई.

सादर.

 

Comment by Nita Kasar on December 6, 2015 at 8:53pm
घर में लगे बुज़ुर्ग दरख़्त को इस तरह हटाया नही करते यदि यही उनका भविष्य है तो बेहद दुखदायी है ।कितने अरमानों से मातापिता बच्चे का भविष्य बनाते है इसलिए के लिये तो कदाचित नही संवेदनशील कथा के लिये बधाई आद०नयना (आरती)कांनिटकर जी ।

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 6, 2015 at 10:54am

यही बात हर किसी को एक न एक दिन महसूस होनी है , आदरनीया , आपकी कघुकथा बहुत अच्छी लगी ,शररी दिखावे से दूर वहीं असल जिन्दगी है । आपको बधाई

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on December 5, 2015 at 4:28pm
राहिला जी ,उस्मानी जी और धामी जी आभार आपने रचना पढ़ सराहा
Comment by Rahila on December 5, 2015 at 11:49am
बहुत सुन्दर चित्रण आदरणीया नयना जी! बहुत बधाई इस रचना हेतु । सादर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 5, 2015 at 11:36am

जिसमें बचपन खेल कूदा उस आँगन की याद सताती

तभी जवानी काट नगर में दौड़ के भगा यार बुढ़ापा

गाव भले ही पिछड़े है पर मन को सुकून देते हैं नगर तो मजबूरियों का नाम भर है ...मन में गावं के लिए कसक जागती इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई l

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 5, 2015 at 10:54am
"वानप्रस्थाश्रम" के बहाने "गाँवप्रशस्तक्रम"...मानसिक तनाव कम......बहुत बढ़िया प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ आपको आदरणीया नयना आरती कानिटकर जी। आदरणीय मोहन बेगोवाल जी की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ--

" पता नहीं क्यूँ ऊम्र भर शहर अपना नहीं होता , चाहे जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा शहर में रहते हुए भी, गाँव को जाने को दिल करता , इसी को पेश करती यह लघुकथा "

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