For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल :: (बह्र-ए-शिकस्ता) -- कभी ये रहा है बेहद, कभी मुख़्तसर रहा है -- मिथिलेश वामनकर

फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन 

1121 - 2122 - 1121 – 2122

 

कभी ये रहा है बेहद, कभी मुख़्तसर रहा है

मेरा दर्द तो हमेशा, दिलो-जां जिगर रहा है

 

तेरी याद का ये सूरज न कहीं ठहर रहा है

कभी कू-ब-कू रहा है कभी दर-ब-दर रहा है

 

“ये जहान छोड़ देंगे अगर आप जो न आये”

मैं समझ रहा था शायद वो मज़ाक कर रहा है

 

कोई भी अयाँ नहीं है, कहीं भी निशाँ नहीं है

वो मज़ार है जहाँ पर, वहाँ मेरा घर रहा है

 

कहीं उड़ गया परिन्दा, मेरे ख्व़ाब के शज़र से

मेरे हाथ में मरासिम का कटा-सा पर रहा है

 

मुझे जन्नतों की वैसे कोई आरज़ू नहीं है

मेरे दो जहाँ का आलम दरे-यार पर रहा है

 

जो निजात मांगता है मेरी शख्सियत से यारों

मेरा हमसफर रहा है मेरा रहगुजर रहा है

 

जिसे जांनिसार माना जिसे गमगुसार माना

मेरे हाल से हमेशा वही बेखबर रहा है

 

ये तमाम आब पीकर शबोरोज़ सो न जाना

जो गुनाह अब्र का है कभी मेरे सर रहा है

 

बड़ी सुस्त चाल चल के अजी आफताब आया

उसे क्या पता परेशाँ कोई रात भर रहा है

 

----------------------------------------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर

----------------------------------------------------

Views: 679

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 2:31pm

आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. आपका स्नेह सदैव मेरा मनोबल बढ़ाता है.

बह्र-ए-शिकस्ता के विषय में मैं भी बहुत ज्यादा नहीं जानता.  मेरी समस्त जानकारी इंटरनेट और कुछ किताबों पर आधारित है. 

मूल सात रुक्नों में किसी भी रुक्न की आवृति से बनने वाली बह्र, मुफ़रद कहलाती है. जैसे 2122-2122-2122-2122 

जब दो अरकान की आवृति हो (रिपीट हो) तो उसे शिकस्ता बह्र कहते है जैसे 1121 - 2122 - 1121 – 2122

एक जिहाफ और एक मूल अरकान रिपीट हो रहा है. 

बाकी विस्तार से गुनीजन ही बता सकते है. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 2:15pm

आदरणीय नादिर सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 2:15pm

आदरणीय श्याम नरेन् जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार.

Comment by जयनित कुमार मेहता on September 23, 2015 at 11:02pm

जिसे जांनिसार माना जिसे गमगुसार माना
मेरे हाल से हमेशा वही बेखबर रहा है...

आह! क्या ग़ज़ल कही है जनाब न..शेर-दर-शेर दाद क़ुबूले.. :-)

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 23, 2015 at 9:12pm

आ 0 मिथिलेश जी -- आप में उषा देखी , आपका अरुण देखा.  आपका सूरज देखा  और अब मार्तण्ड देख रहा हूँ आप दिन पर दिन पकड़ से बाहर होते जा रहे है . आखिर हम सब क्या बेचेंगे  ? सादर्.

Comment by Ravi Shukla on September 23, 2015 at 1:09pm

आरणीय मिथिलेश जी आन लाईन होते ही नवीनतम ब्‍लाग्स मे सबसे पहले आप की ही ग़ज़ल दिखी

तेरी याद का ये सूरज न कहीं ठहर रहा है

कभी कू-ब-कू रहा है कभी दर-ब-दर रहा है  यादों का सूरज बहुत खूब भाव है यादों से जह्न रोशन भी है और गर्मी की तीव्रता हो तो परेशान भी करती है यादें

कहीं उड़ गया परिन्दा, मेरे ख्व़ाब के शज़र से

मेरे हाथ में मरासिम का कटा-सा पर रहा है   क्‍या भाव व्‍यक्‍त किये है बहुत खूब

बड़ी सुस्त चाल चल के अजी आफताब आया

उसे क्या पता परेशाँ कोई रात भर रहा है   शानदार रात भर की परेशानी का जिक्र । प्रतीक्षा का दुख सही बयान किया है

ये शेर हमें खास पसंद आये इसलिये टिप्‍पणी के साथ वैस पूरी ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद हाजिर है मिथिलेश जी

अब एक जिज्ञासा ये बह्र के निर्माण के नियम हमे बताइये निश्चित संख्‍या है या कुछ रुक्‍न के फेर बदल से है ।

Comment by नादिर ख़ान on September 23, 2015 at 12:07pm

बड़ी सुस्त चाल चल के अजी आफताब आया

उसे क्या पता परेशाँ कोई रात भर रहा है...... उम्दा गज़ल कही अदरणीय मिथिलेश जी बहुत खूब ...

Comment by Shyam Narain Verma on September 23, 2015 at 10:48am

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!

.सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
12 hours ago
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
18 hours ago
LEKHRAJ MEENA is now a member of Open Books Online
Wednesday
Tilak Raj Kapoor replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"शेर क्रमांक 2 में 'जो बह्र ए ग़म में छोड़ गया' और 'याद आ गया' को स्वतंत्र…"
Sunday
Tilak Raj Kapoor replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"मुशायरा समाप्त होने को है। मुशायरे में भाग लेने वाले सभी सदस्यों के प्रति हार्दिक आभार। आपकी…"
Sunday
Tilak Raj Kapoor updated their profile
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आ. भाई जयहिन्द जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है और गुणीजनो के सुझाव से यह निखर गयी है। हार्दिक…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आ. भाई विकास जी बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आ. मंजीत कौर जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है।गुणीजनो के सुझाव से यह और निखर गयी है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। मार्गदर्शन के लिए आभार।"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय महेन्द्र कुमार जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। समाँ वास्तव में काफिया में उचित नही…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service