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मसरूफ है दुआ करने-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

1212--- 1122---1212---22

 

जरा खंरोच जो आई लगे सदा करने

कलम जो धड़ से है, जाएँ कहाँ दवा करने

 

उसे भरम है अदालत से फैसला होगा

मुआमले को लगे वो रफा-दफा करने

 

लहू से आज नहा के जो लौट आया है  

गया था शख्स शरीफों का घर पता करने

 

वो एक आस लगाए इधर उधर ताके

शरीफ भीड़ लगी है खुदा-खुदा करने

 

हुआ है अब्र का भी हाल घर के नल जैसा

जो पानी मांग लो लगता है ये हवा करने

 

हुई है बेटियां मसरूफ आज दफ्तर में

घरों में माएं भी मसरूफ है दुआ करने

 

वो एक बार गरीबों का भाग दे लेते

लगे जो दौलतों से दौलतें गुना करने

 

हुबाब, जिंदगी ‘मिथिलेश’ तिश्नगी, सपने

ये खातमे के लिए है,  नहीं जमा करने  

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by Rahul Dangi Panchal on September 8, 2015 at 6:33pm
सुन्दर गजल हेतु बधाई आदरणीय
Comment by Rahul Dangi Panchal on September 8, 2015 at 6:33pm
सुन्दर गजल हेतु बधाई आदरणीय

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 5:33pm

आदरणीय श्याम नरेन् जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 5:31pm

आदरणीय दिनेश भाई जी, आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 5:31pm

आदरणीय सुशील सरना सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 5:30pm

आदरणीय रवि जी, आपने सही कहा इस बह्र में मैंने पहले एक या दो ग़ज़ल ही लिखी है, मुशायरे में इस बह्र के अभ्यास का प्रभाव है इस ग़ज़ल पर. ये भी सही है कि इस मंच के गुणीजनों से बहुत कुछ सीखने मिलता है और समर कबीर जी जैसे उस्ताद जब मंच पर उपलब्ध हो तो इसे अपनी किस्मत ही मानना चाहिये. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 5:27pm

आदरणीय हर्ष जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 5:24pm

आदरणीय सुनील जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका. आपने सही कहा मिसरे के कारण  तकाबुले-रदीफ़ दोष आया है. सुधारने का प्रयास करता हूँ सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 8, 2015 at 5:18pm

आदरणीय समर कबीर जी, ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका.

मतले में जाएँ को सही कर जाए करता हूँ

आपके मार्गदर्शन अनुसार इस मिसरे को निवेदित किया है-

मुआमले को लगे वो रफा-दफ़ा करने. 

सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on September 8, 2015 at 5:06pm

बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें.............

कृपया ध्यान दे...

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