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ग़ज़ल

122 122 122 122

कभी कोई मु‍फलिस कहां बोलता है ।

जो बोले तो फिर आसमां बोलता है ।।

ज़माना नहीं, पासबां बोलता है ।

हुआ कौन उसका, मकां बोलता है ।।

अभी लोग  उठकर रवाना हुए हैं ।

ये चूल्‍हों से उठता धुआं बोलता है ।।

 

अगर आंच गैरत पे आये तो बोले ।

वगरना कहां बेजुबां बोलता है ।।

 

दिलासा नहीं काम दे दो मुझे तुम ।

यही बात बोले जहां बोलता है ।।

जमीं उसकी दहकान से छीन ली फिर ।

करो खुदकशी हुक्‍मरां बोलता है ।।

 

यहाँ  क्‍या रहा साथ क्‍या ले चले हम ।

कफन देख सूदों जियां बोलता है ।।

 

मजा मंजिलों में नहीं है मुसाफिर ।

सफर दर सफर कारवां बोलता है ।।

 

किताबों का हर फलसफा है किताबी ।

इबादत से  हासिल निशां बोलता है ।।

मौलिक एवं अप्रकाशित

आरणीय गुणीजन ये ग़ज़ल ओ बी ओ का सदस्‍य बनने से पूर्व कही थी अब ओ बी अो के विशाल सागर से अपनी सामर्थ्‍य भर ग्रगहण करने  के बाद इसे देखते है तो कई जगह इसमें मात्रा गिरा कर पढ़नी पड़ रही है । आप  कृपया सुधार हेतु मार्ग दर्शन दें और ये भी बताये कि क्‍या ये ग़ज़ल विधा की रचना कही जा सकती है

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Comment by Ravi Shukla on August 5, 2015 at 4:01pm

आरणीय गिरिराज जी इसी उद्देश्‍य से ग़ज़ल पोस्‍ट की है जिससे कि हम अभ्‍यास के अंतर को समझ सके और संशोधन कर सकें

ओ बी ओ पर कुछ सीखने से पहले की रचना है ये  । आप सब के सुझाव अनुसार इसका परिमार्जन कर सकेंगे  यही आशा है ।

आपकी इस्‍लाह का सदैव स्‍वागत है आदरणीय ।

Comment by Ravi Shukla on August 5, 2015 at 3:56pm

आदरणीय हर्ष जी ग़ज़ल पसंद आई आपका आभार अनुग्रह बनाये रखें

Comment by Harash Mahajan on August 5, 2015 at 3:41pm

आदरणीय रवि शुक्ला जी शिल्प की दृष्टि से गुनिजन ही देख पायेंगे || मगर  उम्दा शब्दावली  के साथ अह्साओं का रंग  खूब दिया  है आपने इस बेहतरीन रचना में ---वैसे तो सारी  ग़ज़ल के शेर लाजवाब हुए हैं पर मुझे ये शेर बहुत पसंद आये हैं शुक्ल जी

कभी कोई मु‍फलिस कहां बोलता है ।

जो बोले तो सारा जहां बोलता है ।।.....कितना सच उगला है आपकी कलम ने.....हर जगह लागू होता है |...वाह

मजा मंजिलों में नहीं है मुसाफिर ।

सफर दर सफर कारवां बोलता है ।।..................आपकी तहरीर का एक और जो  मोती पिरोया है आपने ...बहुत ही खूब !!

ढेरों दाद !! वासूल पाइयेगा !!

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 5, 2015 at 2:38pm

आदरणीय रवि शुक्ला भाई , बेहतरीन गज़ल कही है आपने , अभी अशआर  लाजवाब हैं । ग़ज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ।

अगर आंच गैरत पे आये तो बोले ।

वगरना कहां बेजुबां बोलता है ।।  लाजवाब !!

इन हाथों को मेरे कोई काम दे दो   -   बस ये मिसरा आपका बेबह्र है ,

चाहें तो ---  कोई काम हाथों को मेरे भी दे दो     -- ऐसा कर सकते हैं  या जो आपको सूझे कर लें

एक बात और - मतले में कहाँ और जहाँ  लेने से , आपका काफिया  अहाँ तय हो रहा है , बाक़ी शे र मे  केवल आँ निभाया गया है , उसे बदल लीजियेगा । नही तो बाक़ी शेर ख़ारिज हो रहे हैं ।

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