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ग़ज़ल : लब-ओ-अरिज़ की, वफ़ा और जफ़ा की बातें

लब-ओ-अरिज़ की, वफ़ा और जफ़ा की बातें
नाज़-ए-महबूब की, क़ामत की, अदा की बातें
.
जलव-ए-वस्ल की, फुरक़त की,सज़ा की बातें
दिल-ए-बेहोश, फिर एक होशरुबा की बातें
.
हैं कहाँ इश्क़-ओ-वफ़ा , दर्द-ओ-दवा की बातें 
हैं फ़क़त सूद-ओ-ज़ियाँ , बुग्ज़-ओ-अना की बातें
.
हाल-ए-दिल हम ने सुनाया तो ज़रा बात चली
हाल-ए-दिल तुम भी सुनाओ , तो हों बाक़ी बातें
.
बुरा कहता है ज़माना , तो कहे ना , सालिम
उम्र भर हमने कहाँ, किसकी ,सुना की बातें ?
   -सालिम शेख 
''मौलिक एवं अप्रकाशित ''

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Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on August 5, 2015 at 7:27pm

आ० भाई बहुत ज्यादा बातें तो मुझे नही पता मै भी सिख रहा हूँ...हाँ मेरा कवाफी को लेकर कहना इसी मिसरे पर था....//हाल-ए-दिल तुम भी सुनाओ , तो हों बाक़ी बातें//...आपकी गज़ल में जहाँ तक मै समझ पा रहा हूँ मतले में काफ़िया 'अआ' पर बंधा है

लब-ओ-अरिज़ की, वफ़ा और जफ़ा की बातें
नाज़-ए-महबूब की, क़ामत की, अदा की बातें

इस अनुसार उक्त मिसरे में शायद काफिया दोष आ रहा है!

बाकी आ० सौरभ सर की बातों पर अवश्य ध्यान दें!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 5, 2015 at 10:46am

इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ..भाई सालिम जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2015 at 11:04pm

भाई सालिम शेख, आपकी ग़ज़ल के मिसरे इस वज़न पर मालूम होते हैं - 2122 / 1122 / 1122  / 22 (112) 

मैं आपकी ग़ज़लों के शेरको देख कर ऐसा समझ रहा हूँ. आप इस वज़न पर अपनी ग़ज़ल के मिसरों को बाँधें. यही सही कोशिश कहलायेगी. वर्ना लाख उम्दा कहन हो, अगर सही ढंग से मिसरों का बाँधना न हुआ सारी कोशिश कूड़ा ही मानी जाती है. 

विश्वास है, आप मेरे कहे का अर्थ समझ रहे हैं. 

शुभेच्छाएँ

Comment by saalim sheikh on August 4, 2015 at 10:35pm

आदरणीय  Manoj kumar Ahsaas जी , ग़ज़ल में कम-अज़-कम  पांच ही अशआर का होना ज़रूरी होता है ,  दो शेर और जोड़ने से आपका आशय मैं समझा नहीं , कृप्या समझाने का कष्ट करें , सादर 

Comment by saalim sheikh on August 4, 2015 at 10:31pm

आदरणीय Harash Mahajan साहब , बेहद शुक्रिया 

Comment by saalim sheikh on August 4, 2015 at 10:31pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी , मैंने ''आ'' को बतौर काफ़िया इस्तेमाल किया है और ''की बातें '' बतौर रदीफ़ , अगर कहीं ग़लती हो तो राहनुमाई फरमाएं , सादर

Comment by Harash Mahajan on August 4, 2015 at 10:20pm

आदरणीय saalim sheikh जी अच्छे अहसासों से लबरेज़ है आपकी कृति |

हाल-ए-दिल हम ने सुनाया तो ज़रा बात चली
हाल-ए-दिल तुम भी सुनाओ , तो हों बाक़ी बातें......बहुत खूब !!
Comment by saalim sheikh on August 4, 2015 at 10:13pm

krishna mishra 'jaan'gorakhpuri भाई ,एक बार फिर से शुक्रिया , जहाँ तक काफ़िये की बात है  अगर आप इस मिसरे  की बात कर रहे हैं '' हाल-ए-दिल तुम भी सुनाओ , तो हों बाक़ी बातें'' 

तो इसमें काफ़ और क़ाफ़ का फ़र्क है जो मेरे ख्याल से जायज़ है , अगर नहीं है , या आप किसी और मिसरे की बात कर रहे हैं तो कृप्या मार्गदर्शन करें , सादर  

Comment by saalim sheikh on August 4, 2015 at 10:07pm

आदरणीय  गिरिराज भंडारी जी , मिथिलेश वामनकर जी और krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी 

आप सभी का बेहद बेहद  शुक्रिया , मुझे बह्र का ज्यादा इल्म नहीं है (कोशिश जारी है )  इसलिए मैं इस बह्र का नाम बताने से क़ासिर हूँ 

लेकिन मैंने जिस बह्र या दरअसल लय के आधार पर ये ग़ज़ल कही है , वो अजमल सुल्तानपुरी साहब की ये नज़्म है 

''मैं तेरा शाहजहाँ तू मेरी मुमताज़ महल

आ तुझे प्यार की अनमोल निशानी दे दूँ ''

अगर आप में से कोई इस बह्र के नाम से वाकिफ़ हो तो यहाँ लिखने का कष्ट करें 

Comment by saalim sheikh on August 4, 2015 at 9:51pm

आदरणीय Sushil Sarna जी , बेहद शुक्रिया 

कृपया ध्यान दे...

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