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नज़्म - तुम्हारे ख़त

कितना अच्छा होता न ?
अगर वो सारे ख़त तुम्हारे
जिन्हें मैं रोज़ पढ़ता हूँ
पढ़ कर मुस्कुराता हूँ
कभी आंसू भी आते हैं
मगर गिरने नहीं देता
कि कोई लफ्ज़ जो तुमने लिखा
मिट जाए न मेरे आंसू से
कितना अच्छा होता
जो ये सारे ख़त तुम्हारे
तुमने न लिखे होते
या मेरा पता गलत होता
तो आज जब तुम अहद सारे भूल बैठे हो
मैं भी भूल सकता था
सभी क़समें सभी वादे
सभी शिकवे सभी आहें
जो हैं जा ब जा बिखरे हुए
हर एक ख़त की भीगी सत्रों में
और जो अब सिर्फ अलफ़ाज़ हैं कोरे
मायने खो चुके हैं जिनके
बिखर गई है जिनकी सच्चाई
वक़्त के हल्के से एक झोंके में
बदल गए हैं इनके मायने या
तुम ही बदल गए जानाँ
-सालिम
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by saalim sheikh on May 15, 2016 at 11:50pm

बेहद शुक्रिया जनाब गुमनाम पिथौरागढ़ी साहब , जनाब सुशील साहब , जनाब समीर कबीर साहब  और जनाब मिथिलेश वामनकर साहब , आपकी हौसला अफजाई के लिए , मुझे ख़ुशी है कि आपको नज़्म पसंद आई 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 11, 2016 at 1:23pm

आदरणीय सलीम जी, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by Samar kabeer on May 9, 2016 at 6:10pm
जनाब सलीम शैख़ साहिब आदाब,रेशमी मुलायम अहसासात से सजी आपकी नज़्म पसन्द आई,बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on May 9, 2016 at 5:04pm

और जो अब सिर्फ अलफ़ाज़ हैं कोरे
मायने खो चुके हैं जिनके
बिखर गई है जिनकी सच्चाई
वक़्त के हल्के से एक झोंके में
बदल गए हैं इनके मायने या
तुम ही बदल गए जानाँ

वाह बहुत सुंदर अहसासों की नज़्म कहीं आपने आदरणीय। हार्दिक बधाई।

Comment by gumnaam pithoragarhi on May 9, 2016 at 3:39pm

वाह अच्छा लगी  वाह बधाई  ..............................

ये सारे ख़त तुम्हारे
तुमने न लिखे होते
या मेरा पता गलत होता

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