किराए का घर--
शरीर,
लोभी और भोगी
सदैव आकर्षक, चकमक
किराए का घर
हवस की दीवारों पर टिकी
अहं - विकार की छत
बिखरी श्वेत चॉदनी पर चढा़ता
चाटुकारिता का रंग
टाड़-अलमारियों से झॉंकते
छल और कपट
सब मौन है।
ताख का टिमटिमाता दिया
किराएदार
आत्मा का वर्चस्व, संयमी-उद्यमी
र्निलिप्त कर्मो का प्रदाता
सॅवारता है सभी प्रकोष्ठ, सभ्य आचरण भी
बन्द खिड़कियो से चिपका
विवेक का वातानुकूलित सयंत्र
अनुरक्षण के दायित्व से मुक्त
तैनात करता एक कुशल प्रभारी अभियन्ता- मन ।
उद्विग्न चंचल इन्दियॉं
बेताब हठी श्वॉसें
बिन बुलाई मेहमान - धूल,
पर्त दर पर्त जम जाती ।
सिहर उठती आत्मा
पर्दो सी फड़फड़ताी
धूल चट कर जाती दीवारों को
ढह जाती है छत।
यम - नियम
मकान मालिक,
संरक्षक
मॉगता है किराया-
आवास-बिजली और पानी का
संस्कारी आत्मा चुप,
पानी-पानी ।
वादी,
किराए का घर, स्वयं प्रस्तुत करता
मूर्खता के प्रमाण
पक्ष में खड़े हो जाते
ईष्र्या-द्वेष में लिप्त पड़ाेसी,
पूरा का पूरा गॉव खानाबदोस
ठगों का।
मकान मालिक,
मूक-बधिर, स्तब्ध... किंकर्तव्यविमूढ़!
बन्द कर लेता अपनी आखें- योग में
रहस्य कभी प्रकट नही होता- स्वयं से
आत्मा अजर-अमर,
पंचतत्व के कण-कण बच नही पाते
....... हवा की क्रूरता से,
परमात्मा सर्वत्र है...।
के0 पी0 सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 कान्ता जी, कविता आपको पसन्द आई, मेरा लेखन सफल हुआ। आपका बहुत.बहुत आभार, सादर
आ0 जान भाईजी, कविता आपको पसन्द आई, मेरा लेखन सफल हुआ। आपका बहुत.बहुत आभार, सादर
आ0 गोपाल भाईजी, कविता आपको पसन्द आई, मेरा लेखन सफल हुआ। आपका बहुत - बहुत आभार, सादार
बहुत बेहतरीन केवल आ० भाई केवल जी!हार्दिक बधाई!
पंचतत्व के कण-कण बच नही पाते
....... हवा की क्रूरता से,
परमात्मा सर्वत्र है...।---------------कमाल है , बहुत बढ़िया. आ० केवल जी.
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