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ग़ज़ल :-लुक़्मा समझ के हम को मज़ेदार खा गई

बह्र :- मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ाइलुन

लुक़्मा समझ के हम को मज़ेदार खा गई
दुनिया है एक डायन-ए-बदकार खा गई

निकला जो चाँद मैंने ये समझा कि आप हैं
धोका मेरी नज़र ये कई बार खा गई

पहले तो इसने उनको ज़मींदार कर दिया
फिर ये ज़मीन सारे ज़मींदार खा गई

लिल्लाह अब ये ज़ुल्म-ओ-सितम रोक दीजिये
नफ़रत की आग कितने ही घर बार खा गई

जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई

कपड़े ही सिल सके हैं ,न दीपक जला सके
मँहगाई हम ग़रीबों के त्यौहार खा गई

हम भी इधर उदास हैं ,वो भी उधर उदास
खुशियाँ तमाम सह्न की दीवार खा गई

मंज़िल क़रीब आई तो दम लेने रुक गए
तक़दीर बस वहीं प "समर" मार खा गई


"समर कबीर"
मौलिक / अप्रकाशित

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Comment by shree suneel on May 12, 2015 at 5:53pm
आदरणीय समर कबीर सर, सारे अशआर ख़ूबसूरत, बेशकीमती कारीगरी से भरे.
लुक़्मा समझ के हम को मज़ेदार खा गई
दुनिया है एक डायन-ए-बदकार खा गई/
जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई/
सही बात आदरणीय.. ख़ूब ग़ज़ल हुई है.. बधाई आपको
Comment by vijay nikore on May 12, 2015 at 4:48pm

खूब, बहुत खूब। हार्दिक बधाई इस अच्छी गज़ल के लिए।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 12, 2015 at 2:41pm

आदरणीय समर कबीर जी ..इस रचना को पढने के बाद बरबस ही मुह से निकल पड़ता है वाह वाह ...

पहले तो इसने उनको ज़मींदार कर दिया
फिर ये ज़मीन सारे ज़मींदार खा गई...................लाजबाब 

लिल्लाह अब ये ज़ुल्म-ओ-सितम रोक दीजिये
नफ़रत की आग कितने ही घर बार खा गई.....सच कहा है आपने .भावुक करता शेर 

जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई..................दुखद है पर वाकई हकीकत यही है 

कपड़े ही सिल सके हैं ,न दीपक जला सके
मँहगाई हम ग़रीबों के त्यौहार खा गई..............................पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ 

हम भी इधर उदास हैं ,वो भी उधर उदास
खुशियाँ तमाम सह्न की दीवार खा गई.....सही है 

मंज़िल क़रीब आई तो दम लेने रुक गए
तक़दीर बस वहीं प "समर" मार खा गई................इस शेर की तारीफ़ के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं 

वाकई कमाल की ग़ज़ल 

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 12, 2015 at 11:02am

वाह वाह भी इस ग़ज़ल पर मार खा गई ....बहुत बढ़िया ....सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 12, 2015 at 10:43am

क्या खूब ..वाह वाह वाह ..
मकते पर झुक झुक के सलाम करता हूँ जनाब ..क्या कहने वाह 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 9:27am

कपड़े ही सिल सके हैं ,न दीपक जला सके
मँहगाई हम ग़रीबों के त्यौहार खा गई

हम भी इधर उदास हैं ,वो भी उधर उदास
खुशियाँ तमाम सह्न की दीवार खा गई   -- वैसे पूरी गज़ल शानदार कही है , आदरणीय समर भाई आपने , पर ये दो शे र मुझे बहुत सुन्दर लगे ॥ दिल से बधाइयाँ स्वीकार कीजिये ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 12, 2015 at 6:43am
लिल्लाह अब ये ज़ुल्म-ओ-सितम रोक दीजिये
नफ़रत की आग कितने ही घर बार खा गई
जो कह रहा हूँ कोई नई बात तो नहीं
रोटी की भूक सेकड़ों फ़नकार खा गई॥
बहुत खूब , आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , बहुत बहुत बधाई इस ग़ज़ल पर , सादर।

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