आँखों में बेबस मोती है …
रात बहुत लम्बी है
ज़िंदगी बहुत छोटी है
पत्थरों के बिछोने पे
लोरियों की रोटी है
अब वास्ता ही नहीं
हाथों की लकीरों से
भूख बिलखती है पेट में
मुफलिसी साथ सोती है
आते ही मौसम चुनाव का
होठों पे हँसी होती है
राजनीति की जीत हमेशा
हम जैसों से ही होती है
हर चुनाव के भाषण में
नाम हमारा ही होता है
कुर्सी मिलते ही फिर से
फुटपाथ पे तकदीर होती है
संग होते हैं श्वान वही
वही भूखी रात होती है
रूठी हुई ज़िंदगी का
आँखों में बेबस मोती है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी रचना पर आपकी स्नेहिल ऊर्जावान प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय सुशील जी ..वर्तमान परिदृश्य में जो कुछ हो रहा है उसका चित्रण आपने बखूबी किया है इस रचना के माध्यम से ..जिसके लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी रचना पर आपकी स्नेहिल ऊर्जावान प्रशंसा का तहे दिल से शुक्रिया।
आम आदमी का दर्द लिए बहुत ही लाजव़ाब कविता आपको दिल से बहुत बहुत बधाई आदरणीय shushil जी!
आदरणीय जी रचना पर आपकी मधुर प्रशंसा एवं सुझाव का हार्दिक आभार। आपके सुझाव पर अमल करने का प्रयास करूंगा। इस स्नेह हेतु आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय मोहन सेठी जी रचना पर आपकी प्रशंसात्मक स्वीकृति का हार्दिक आभार।
बहुत खूब आ. सरना साहब.
आपकी रचना का बहुत बड़ा हिस्सा किसी न किसी बहर में है. थोडा और प्रयास कर के इसे नज़्म की सूरत में ढाला जा सकता है.
सादर
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी रचना में निहित भावों को मिली आपकी प्रशंसात्मक स्वीकृति ने रचना का जो मान बढ़ाया है उसके लिए आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय श्री सुनील जी रचना में निहित भावों पर आपकी प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर जी रचना में निहित भावों पर आपकी प्रतिक्रिया ने लेखन को सफल किया। आपका हार्दिक आभार।
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