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ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

 

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर

जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

 

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो  

देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

 

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब

इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

 

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल रहे हैं ‘सज्जन’ जी

जल्दी ही अब इनका भी कारागृह जाना पक्का है

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:21am
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय गिरिराज जी, स्नेह बना रहे
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:20am
शुक्रिया आ. हरि प्रकाश दूबे जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:09am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. गोपाल नारायन जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:08am
बहुत बहुत धन्यवाद आ. विजय शंकर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:07am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. मिथिलेश वामनकर जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:05am
बहुत बहुत शुक्रिया नज़ील साहब
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:04am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. दिनेश कुमार जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 6, 2015 at 10:03am
बहुत बहुत शुक्रिया आ. सुनील प्रसाद जी

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Comment by गिरिराज भंडारी on April 5, 2015 at 11:57pm

क्या बात है ! आदरणीय धर्मेन्द्र भाई बिल्कुल नये विषय मे आपने गज़ल कही है , वाह !!  सभी अशार बहुत सुन्दर लगे पर इसका जवाब नहीं --

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो  

देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है    --   हार्दिक बधाइयाँ ॥

 

Comment by Samar kabeer on April 5, 2015 at 10:56pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी,आदाब,वाह वाह वाह,क्या ही अच्छी ग़जल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |

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